Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 615
________________ ५७२ भनेकान्त [वर्ष ४ जिसमें षट् द्रव्योंका स्पष्ट विधान पाया जाता हो। गुणकी हानि होजाती है । तथा वैसी रचना करके जो इस स्थलपर प्रो० माहबने कुछ आक्षेप रूपमें अर्थ सूचित करना चाहा है वही अर्थ उस वाक्यका लिखा है कि-"न मालूम भाष्यमें 'षड्द्रव्याणि' ऐसा अन्वय करनेसे भी हो जाता है। हां, यदि श्री अकपद प्रदर्शित करनेका ही इन वयोवृद्ध पंडितोंको क्यों लंकदेवको ऐसा कोई दिव्यज्ञान होजाता कि हमारे आग्रह है ?" इसके उत्तरमें इतना ही कहना है कि- इन नन्य पंडितोंको इस प्रकारकी वाक्यरचनापरसे वयोवृद्ध पंडितोंका आग्रह सिर्फ इस लिये ही है कि श्वेताम्बर भाष्यका भ्रम पैदा होजायगा तो शायद व हमारे नव्यधुरंधर अप्रयोजनीभून असत्य असह्य भार आपके मनोऽनुकूल रचना भी कर देते। से दबकर कहीं उन्मार्गी न हो जाय । क्योंकि षड्व्य- इसके सिवाय, यदि उक्त वाक्यका अन्वय न कर रूप महाम भार दूसरे महान् पात्रका विषय है जो कि के अर्थ किया जाय तो भी तो यही अर्थ होता है किवृद्धशक्ति प्राय है, उस (भार) को शिथिल अग्राह्य क्यों कि माध्यमें छहद्रव्य हैं ऐसा बहुतवार कहा छोटे पात्रमें भर कर उसका वाग नव्य बालवत्स-धुरं गया।' है फिर वैसी वाक्यरचनास आपके पक्षकी न धगेकी शक्तिम बाह्य है। मालूम क्या मिद्धि हुई ? सा आप ही जानें ! श्वे० इसके आगे प्रोफेसर साहब लिखते हैं कि- भाप्यमें कहीं पर भी 'बहुकृत्वः षड्द्रव्याणि' ऐसा भी “गजवार्तिकमे यदि 'यद्भाष्य बहुकृत्वः षडदव्याणि वाक्य नहीं है, यह मुझे मालूम है । यदि भाज्यमें वैसा इत्युक्त' न हाकर 'यद्भाष्ये बहुकृत्व उक्तं “षड- वाक्य कहीं मिल जाना ता प्रो० मा० की मान्यता द्रव्याणि" इत्यादि वाक्य होना तो कदाचित् तत्वा- संभवित भी हो जाती, परंतु न तो श्वे० भाष्यमें वैसी र्थभाष्यमें 'षड़द्रव्याणि' यह पद प्रदर्शित करनेका शब्दरचना है और न बहुतवार श्वे० भाष्यमें पद्रव्यों आग्रह ठीक था।' परन्तु उनका यह सब लिखना का कथन ही आया है, तो फिर यह कैम समझा जाय भाषाके प्रासाद गुणकी अजानकारी और गद्यम भी कि अकलंकदेव आपकी मनचाही बात कह रहे हैं ? अन्वय होता है इस बात की भी जानकारीका अस्तु । प्रदर्शित करता है। क्यों कि 'बहुकृत्वः' के प्रागे इस मब विवेचनपरम भले प्रकार स्पष्ट है कि 'उक्त' रखनेस विसर्गका लोप होने के कारण उस प्रो० सा० ने मेरे उक्त कथन पर जो जो आपत्तियां की वाक्यके सम्बद्ध उच्चारण करने में कुछ ठेस लगती हैं उनमें कुछ भी सार नहीं है। है, और ऐमा हनिमें वहाँ वाक्यरचनाकं प्रासाद (क्रमशः)

Loading...

Page Navigation
1 ... 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680