Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 621
________________ ५७४ भनेकान्त [वर्ष ४ प्रजापतियः प्रथम जिजीविषूः, शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदया, ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥२॥ 'जिन्होंने, (वर्तमान अवसर्पिणी कालके) प्रथम प्रजापतिके रूपमें देश, काल और प्रजा परिस्थितिके तत्त्वोंको अच्छी तरहसे जानकर जीने की जोवनोपायको जानने की इच्छा रखने वाले प्रजाजनोंको सबसे पहले कृषि श्रादि को में शिक्षित किया-उन्हें खेती करना, शस्त्र चलाना, लेखनकार्य करना. विद्याशास्त्रोंको पढ़ाना, दस्तकारी करना तथा बनज-व्यापार करना सिखलाया, और फिर हेयोपादेय तत्त्वका विशेष ज्ञान प्राप्त करके श्राश्चर्यकारी उदय (उत्थान अथवा प्रकाश) को प्राप्त होते हुए जो ममत्वसे ही विरक्त होगए-प्रजाजनों, कुटुम्बीजनों, स्वशरीर तथा भोगोंसे ही जिन्होंने ममत्व-बुद्धि (श्रासक्ति) को हटा लिया । और इस तरह जो तत्त्ववेत्ताओंमें श्रेष्ठ हुए। विहाय यः मागर-वारि-वासमं, वधूमिमां वसुधा-वधं सतीम् । मुमुक्षुग्क्ष्विाकु-कुलादिरात्मवान , प्रभूः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ॥शा 'जो मुमुच थे-मोक्ष प्राप्तिकी इच्छा रखने वाले अथवा संसार-समुद्रसे पार उतरनेके अभिलाषी थे-,अात्मवान थे-इन्द्रियोंको स्वाधीन रखने वाले अात्मवशी थे-,और ( इस लिये ) प्रभु थे-स्वतंत्र थे-, उन ( विरक्त हुए) इक्ष्वाकु-कुलके श्रादिपुरुषने, सती वधको-अपने ऊपर एक निष्ठासे प्रेम रखने वाली सुशीला महिलाको-और उमी तरह इस मागर-वारि-वसना वसुधावधूको-सागरका जल ही हे वस्त्र जिसका ऐसी स्वभोग्या समुद्रान्त पृथ्वीको-भी, जो कि (युगकी श्रादिमें ) सती-सुशीला थी-अच्छे सुशील पुरुषोसे श्राबाद थी-, त्याग करके दीक्षा धारण की। ( दीक्षा धारण करने के अनन्तर) जो सहिष्णु हुए-भूख-प्यास श्रादिकी परीषहोंस अजेय रहकर उन्हें सहने में समर्थ हुए-,ओर (इसीलिये ) अच्युत रहे-अपने प्रतिज्ञात ( प्रतिज्ञारूप परिणत ) व्रत-नियमोसे चलायमान नहीं हुए। (जबकि दूसरे कितने ही मातहत राजा, जिन्होंने स्वामिभक्तिसे प्रेरित होकर आपके देखा-देखी दीक्षा ली थी, मुमुक्षु, श्रात्मवान् , प्रभु तथा सहिष्णु न होने के कारण, अपने प्रतिज्ञात व्रतोंसे च्युत और भ्रष्ट होगये थे।' म्व-दाष-मूल स्वममाधि तेजसा, निनाय या निदेय-मम्मसाक्रियाम । जगाद तत्त्वं जगतंऽथिनऽअसा, बभूव च ब्रह्मपदाऽमृतेश्वरः ||४|| "(नपश्चरण करते हुए) जिन्होंने अपने प्रात्मदोषोंके--राग-द्वेष-काम-क्रोधाादकोंक--मूलकारणको-घानिकर्मचतुष्टयको-अपने समाधि-तेजसे-शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड अमिसे--निर्दयतापूर्वक पूर्णतया भस्मीभूत कर दिया। तथा (ऐसा करनेके अनन्तर) जिन्होंने नत्वाभिलाषी जगतको तत्त्वका सम्यक उपदेश दिया--जीवादि तत्वोका यथार्थ स्वरूप बतलाया। और (अन्तको) जो ब्रह्मपदरूपी अमृतके--स्वात्मस्थितिरूप मोक्षदशामें प्राप्त होने वाले अविनाशी अनन्त सुखके--ईश्वर हुए-स्वामी बने । __म विश्व-चक्षुवृषभाऽर्चितः सतां, समप्र-विद्याऽऽत्मवपुर्निजनः । पुनातु चेना मम नाभि-नन्दनी, जिनोऽजित-क्षुल्लक-वादि-शामनः ।।५।। (स्वयम्भूस्तोत्र) ___(इस तरह) जो सम्पूर्ण कर्म-शत्रुओंको जीतकर 'जिन' हुए, जिनका शासन खुल्लकवादियोके-अनित्यादि सर्वथा एकान्त पक्षका प्रतिपादन करने वाले प्रवादियोके--द्वारा अजेय था, और जो सर्वदर्शी है, सर्व विद्यात्मशरीरी हैं--पुद्गल पिंडमय शरीरके अभावमें जीवाादे सम्पूर्ण पदार्थोंको अपना साक्षात् विषय करने वाली केवलज्ञानरूप पूर्णविद्या (सर्वशता) ही जिनका आत्मशरीर है--,जो सत्पुरुषोसे पूजित है, और निरंजन पदको प्राप्त है--ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा राग-द्वेषादि भावकर्मरूपी त्रिविध कर्म-कालिमासे सर्वथा रहित होकर श्रावागमनसे विमुक्त हो चुके हैं, वे (उक्त गुण विशिष्ट) नाभिनन्दन--1४३ कुलकर (मनु) नाभिरायके पुत्र-श्रीवृषभदेव-धर्मतीर्थके श्राद्यप्रर्वतक प्रथम तीर्थकर श्रीश्रादिनाथ भगवान--, मेरे अन्त:करणको पवित्र करें--उनकी स्तुति एवं स्वरूप-चिन्तनके प्रसादसे मेर हृदयको कलुषांत तथा मलिन करने वाली कषाय-भावनाएँ शान्त होजायँ।'

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