Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 652
________________ किरण ११-१२] एक-पत्नी-ब्रत ६०७ पशपक्षियोंस क्या मिला है कभी कुछ ?-मानव जो के लिए वे सब घातक हैं। प्रतिक्षा अटल वस्तु हैएक समर्थ प्राणी है ! और पशु-पंछी-? हीन, भाग्य रेखाकी तरह। कुबेरकान्तन धीमे, मजबूत दीन, छोटे। और सरस स्वरमें निवेदन किया । ___ पलंगपर लेटे ही लेटे कुबेरमित्रकी नजर जा पड़ी क्षणभर सब मौन रहे। सधर-शून्य-सी, निरर्थक-सी ! देग्वते रहे कुछ कुबेरमित्रने फिर निस्तब्धता भंग की । इमबार मिनिट! मन बहला तो जरूर कुछ, पर अधिक उनके म्बरम कम्पन था, दीननाका आभास भी थामानन्द न मिल मका ! मनमें जो चिताकी संगिनी- थोड़ा ! बोले-'क्या यह भी तुम जानते हो, कबरचिन्ता घुमी हुई थी। कान्त ! कि तुम्हारी इस प्रनिहास मेरी कितनी मिली ईषा ! आप ही श्राप बोल उठे- बदनामी, कितनी हँसी होगी ? किन किन मुसाबतों 'एक यह भी जिन्दगी है, न ग़म है, न फिक्र । चैन का मुझे मुकाबिला करना पड़ेगा ? जो सम्भ्रान्तकी बंशी बजा रहे हैं-दानों। मज्जन अपार धन-राशि और तिलोत्तमा सी कन्याएँ मालिकका ध्यान जो अपनी ओर दम्बा, तो लेकर पधारे हैं, क्या वे पमनाचत वापम लौट कबूनर भी कुछ-न-कुछ नाड़ गया जरूर !: 'नजदीक सकेंगे ? क्या इमम वे अपना अपमान होता महसूम प्राकर, लिखन लगा जमीनपर चौंचम कुछ !.. न करेंगे ? थाहा विचार ना कग, कुबेरकान्त ! कि ___ कुबेरमित्रकी चिन्ता, बदलने लगी कौतुहल में। यह नाममझी प्रत कहाँतक हितकर है ? व देखने लगे-एकटक, बगैर पलक गिगए, आश्च- मानता हूँ पिताजी, कि आपकी बातें रालत नहीं र्यान्वित हो उसी ओर। हैं। लेकिन मैं जिस धार्मिक तरीकपर जानता हूँ, व थे-समर्थ मानव । आप उन दुनियाषी दृष्टिकोणमे देखते हैं, यही क्रक और वह था-बेजुबान जानवर । है और जबतक इस फकका ग्वाईपर विवेकका बाँध समझदार परिन्दन लिखा-'कुबेग्कान्तनं 'एक- नहीं डाला जायेगा, सम्भव नहीं कि हठामहका अन्त पत्नी-व्रत' ले रखा है। यह एक ही स्त्री वरण करेंगे। हा, समस्या सुलझ मके ! मुझे दुःग्य है कि भापक यह विशाल प्रायोजन न कीजिये, इमस उन्हें दुःख द्वारा मुझे वे शब्द सुननेको मिल रहे हैं, जो कदाचिन पहुंचता है, वे उदाम हैं।' - किमी व्रतीके लिए 'खतरा' सिद्ध हो सकते हैंकुबेरमित्रको आँग्वांस जैम पट्टी खुल गई । वे कुबेरकान्तन हड़ शब्दों में अपनी बात सामने रखी। भागे, म्वस्थकी नम्ह पुत्रक पाम । माथम और भी कुबेरमित्र कुछ कहें, इम पेश्नर ही, भागन्तक माननीय सज्जन थे। कई व नरेश भी थे जो नरेशीमम एक वाल-कुवर माहं ! हरबात उम्रम कन्याओं को लेकर पधारे थे, और जिन्हें वरकी प्रतिक्षा ताल्लुक रखती है। आप जो फरमा रहे हैं, वे किसी का मामूली-मा पना चल चुका था ! बुजुर्राके मुंहसे निकलनेवाली बातें हैं । भापको वे उदास-सा कुबेरकान्त, चिन्ताओं के बीच, अकला जेबा नहीं दी। आप नोजवान हो । बहत कुछ बैठा था । पूज्यवर्गको आने जो देखा, ना उठा, पैर जानना-सीखना है, अभी आपको ! प्रतिज्ञा चीज छए, प्रणाम मिया; और उकवासनपर ला बिठाया। बुरी नहीं है, पर उसे उचित तो होना चाहिए, न" _ 'क्या यह मही है, कि तुम एक ही कन्या वग्ण और आपका व्रत अगर अनुचित नहीं है, तो परि की इच्छा र स्वत हो ?'-कुर्व मित्रनं धड़कन-हृदयस स्थिति के खिलाफ तो जरूर है-यह ता मानना ही उतावलेपन के साथ पूछ।। होगा ! सोचिए-आपके पाम धन है, रूप, कीर्ति, हाँ इच्छा ही नहीं, प्रनिज्ञा गम्बना हूं। इच्छामें बुद्धि और है पिनाका उत्साह, मांकी ममता ! फिर, सुधार, नन्दीली सब-कुछ हो सकता है। पर, प्रतिज्ञा यह विगग क्यों ? मैं समझता हूँ-पापको गुरुजनों

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