Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 674
________________ किरण ११-१२] साहित्य-परिचय और समालोचन ६२९ अवतरणोंके मूलस्थल निर्देशक ग्रन्थ मंस्करगों आदिका हश्रा है। ग्रन्थका प्रतिराय विषय उमके नाममे ही स्पष्ट परिचय। है। इस ग्रन्थमें २५४ दोहोंमें गृहस्थ धर्मकी प्रावश्यक इन बारह परिशिष्टोंके लगनेसे ग्रन्यकी उपयोगिता बहन क्रियाका विधान किया गया है। प्रथकी प्रस्तावना अनु. बढ़ गई है। द्वितीयभागकी प्रस्तावनामें प्रभाचन्द्रके ममय संधानपूर्वक लिखी गई है। और प्रयके कर्तृत्व प्रादिके सम्बन्ध में और भी कितना ही प्रकाश डाला गया है। नथा विषयमे अच्छा प्रकाश डाला गया है। प्रस्तामनामे ग्रन्थकी द्रका समय ई.सन हद से १०६५ कानित भाषा और व्याकरणका भी अच्छा परिचय कराया गया है। किया है, जो पं० कैलाशचंद्र जीके ममय निर्णयमे एक तरफ टिप्पणी, शन्दकोष और दोहानुक्रम देनेसे थकी उपयो३० वर्ष और दूसरी तरफ ४५ वर्ष पश्चात्के ममयको लिये गिना बढ़ गई है। भावकधर्म के अभ्यासियों के लिये यह हुए हैं। अभी हम विषयमें और भी अन्तिम निर्णय होना प्रय उपयोगी मूल्य कुछ बाधक है। अवशिष्ट हे ऐमा जान पड़ता है। पाहुड दोहा (हिंदी अनुवाद सहित)-मूल लेखक, द्वितीय भागके शुरुमें 'प्रकाशककी अोर में हम शीर्षकके मुनी राममिह । अनुवादक. और मम्पादक प्रो. हीगलाल जी नीचे ग्रन्थमालाके मंत्री पं० नाथूगमजी प्रेमीने न्यायकमद के जैन एम.ए. श्रमगननी। प्रकाशक, गोपालदास अंबादास कर्ताको उन सभी टका टिप्पणपन्यांका कर्ग बनलाया है चउरे जैन पलीकेशन सोमाइटी कारंजा (बगर) पृष्ठ संख्या जिनका निर्देश प्रन्य सूचियोंमें पाया जाता है। जो ठीक नहीं है। कुछ टीका ग्रन्य तो अपने भाषा माहित्याटिपरमे १७२ । मूस्य, सजिल्द प्रात ) रुपया। इन प्रभाचन्द्र के प्रतीत नहीं होते-वे किमी दुमरे ही प्रभा- प्रस्तुत ग्रंथ अध्यात्मग्ससे परिपूर्ण है। प्रथकाने चन्द्र के जान पड़ते हैं। हम विषयमें विशेष अनमंधानकी २२२ दोहोम अध्यात्म तत्त्वका हृदयग्राही वर्णन दिया है। जरूरत है। और प्रत्येक द हेमें मानमिक दुर्बलताओं और उनसे छुटद्वितीयभागकी प्रस्तावनामें कल याने आपत्ति के योग्य कारा पाने के उपायोका चित्रण करते हए श्रात्मज्ञानपूर्वक भी है जैसे कि स्वामी ममन्तभद्र को पूज्यपाद के बादका पात्म भयमक अभ्यासकी प्रेग्णा। इस थपर मुग्ध कर विद्वान बतलाना, परन्तु वे स्वतंत्र लेखद्वारा अालोचनाका प्राचार्य क्षितिमोहनसेनने 'जैनधर्मकी देन' शीर्षक अपने विषय है। अत: उनकी चर्चाको यहाँपर छोडा जाता है। लेखम इस प्रथके कुछ दोहाका परिचय कराते हुए जो गुणअस्तु ग्रन्यकी छपाई, मफाई और कागज सब उत्तम है। कानन किया है उमपरसे इस प्रयकी माना भले प्रकार ग्रन्यके इस उत्तम संस्करण के लिये मम्पादक और प्रकाशक स्पष्ट है । पाठक उस लेखको अनेकान्तकी गनाकरण नं... दोनों ही धन्यवादके पात्र है। समाजको चाहिये कि ऐमे में देख सकते हैं। प्रन्यकी एक विशेषता गढ़वाद के गस्यको उपयोगी महत्वके अन्योंको म्वरीदकर मन्दिगे, शास्त्रभंडारों समझानेकी भी है, जिमका कितने ही दोहमि वर्णन दिया तथा लायबेरियों में विगजमान करें जिसमें ग्रन्थमालाके हश्रा है। इसको समझनेके लिये कुछ नांत्रिक प्रयांके मंचालकोको प्रोत्माइन मिले और वे दूमरे महलके ग्रन्थोके अभ्यामकी आवश्यकता है-बिना तांत्रिक प्रन्यांके अभ्याम प्रकाशनमें समर्थ हो म। के यह विषय मरलतासे ममममें नहीं प्रामकता । सम्पादक सावयधम्मदोहा (हिन्दी अनुवाद महित)-मू.ले.. जीने प्रस्तावनामें ग्रंथकी विशेषनाका मक्षिम परिचय प्राचार्य देवसेन। अनुवादक और मम्पादक, प्रो.हीरालाल करा दिया है। मल दोहांके हिन्दी अनुवादके माथ, प्रस्ताजैन एम.ए. अमरावनी । प्रकाशनस्थान, गोपालदाम वना. शब्दकोष और रिण देकर ग्रंथका सवमाधारणके अम्बादाम चउरे जैनपब्लीकेशन सोसाइटी, कारंजा (बरार)। उपयोगी बना दिया है। इसके लिये सम्पादक महोदय पृष्ठ संख्या १६२, मूल्य मजिल्द प्रतिका २१) रुपया । धन्यवादके पात्र हैं। इस प्रथका मूल्य भी अधिक रस्वा प्रस्तुत अन्य कारंजामीरीज में नं. २ पर प्रकाशित गया है।

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