Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 663
________________ ६१८ अनेकान्त अनुसरण किया गया है। प्रोफेसर साहबने जो स्थल 'ननु पूर्व त्रेत्यादि' राजवार्तिक के प्रकरणका उल्लिखित किया है उसमें तथा 'यद्भाष्ये बहुकृत्वः षडद्रव्याणि इत्युक्त' और 'वृत्तौ पंचत्ववचनादित्यादि' ये दो स्थल विवादात्पन्न हैं उनमें समाधानकी यह बात इसी रूपसे घटित होती है - परस्पर में कोई विरोध नहीं है । हां, आपने अपने पक्ष के समर्थन में राजवार्तिक पत्र २६४की जो पंक्ति दी है उसका पूर्णरूप इस प्रकार है: -- " ननु पूर्वत्र व्याख्यातमिदं पुनप्रह‍ हगामनर्थकं सूत्रेऽनुपातमिति कृत्वा पुनरिदमुच्यते ।" [ वर्ष ४ 'व्याख्यातं ' शब्द भाष्यका बोधक है। इसलिये शंका का स्थान निश्चित होता है यह बात जो पहले लिखी गई है वह बात भाध्यवाचक 'व्याख्यातं'' से सिद्ध है । इस वाक्य शंकाकार की शंका और प्रन्थकार द्वारा शंकाका समाधान ये दोनों बातें प्राप्त हैं। इस जगह 'पूर्वत्र' का सम्बन्ध 'व्याख्यात' इम पदके साथ नहीं भी हो तो चल सकता है, परन्तु 'सूत्र' के साथ न हो तो वह कदापि भी नहीं चल सकना । वयांकि 'पूर्वत्र' के बिना केवल 'सूत्रे' ही माना जाय तो जिम सूत्रके ऊपर यह गजवार्तिककी पंक्ति है उसमें अर्थात् ' स्वभावमादत्रं च' में तो मनुष्य - श्रायुका कार मार्दव लिखा ही है, अतः 'सूत्रेऽनुपातं' इस वाक्य द्वारा समाधान करना व्यर्थ हरेगा | फिर यह शंका हो सकती है कि यहां 'सूत्रे' जो लिखा है वह कौनमा सूत्र पूर्वका उत्तरका या अन्यत्र का ? तो इस शंकाका समाधान 'पूर्वत्र' आदि शब्द के बिना हो नहीं सकता। अतः 'ननु' इत्यादि वाक्यमे जो 'पूर्वत्र' शब्द आया है वह 'सूत्रे' पदके साथ संबंध - निमित्त हो आया है, और शंकाकारकी शंकाका विषय दानों जगहका भाष्य देखकर भाष्यपर है। 'नु' इत्यादि पंक्ति में जा 'व्याख्यात' पद है वह भी भाष्यका सूचक है; क्योंकि 'व्याख्यातं' शब्द का अर्थ 'वि-विशेषे आख्यातं = व्याख्यातं' भी होता है । विशेष रूपमें आख्यान करनेवाला भाष्य ही होता है । यदि 'व्याख्यात'' का अर्थ 'विशेषेण आख्यातं ' किया जाय तो वह यहां बन नहीं सकता; क्योंकि 'अप्लारम्भ परिग्रह मानुषस्य' इस सूत्र के भाष्य में 'मार्दव' का विशेषरूपसं वर्णन न मामान्यरूप से 'मार्दव' नाम ही लिखा है । इससे कहना होगा कि यहां कदाचित 'पूर्वत्र' शब्द 'व्याख्यातं' का विशेषण रूपसे भी विन्यस्त हो तो कोई दोष नहीं । हाँ, यदि पूर्वत्रके साथ केवल 'उक्त' शब्द होता तो यह शंका अवश्य होती कि पूर्व (पहले) यह बात कहां कही गई है— माध्यमं, वार्तिकमें या सूत्रमे, ? अतः कहना होगा कि यहां 'ननु पूर्वत्र' इत्यादि वाक्य विकर जो 'मयुक्तिक सम्मति' का अभिप्राय खंडन करना चाहा है वह ऐसी पांच दलीलोंसे कदापि भी खंडित नहीं हो सकता-अखंड्य है । आगे प्रो० सा० ने जो यह लिखा है कि"शंकराचार्य आदि विद्वानांने ' अस्माभिः प्रोक्तं ' अथवा 'पूर्वत्र प्रांत' आदि शब्दों द्वारा ही स्वग्रंथकृत उल्लेखका सूचन किया है" इसके सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि शंकराचार्य वगैरहके जां 'अम्माभिः प्रोक्तं ' ' पूर्वत्र प्रोक्त' ये वाक्य हैं वे अपनी अनु मृति आहिर करने के लिये हैं न कि शंकाविषयक किसी समाधानको सूचित करनेके लिये । अतः उनके वाक्योंका और राजवार्तिक-सम्बन्धी 'ननु पूर्वत्र' आदि वाक्योंका कोई सम्बन्ध अथवा मादृश्य नहीं है । दूसरे, आपका जो यह कहना है कि अकलंक - देव ने 'भाष्ये' के स्थान पर 'पूर्वत्र' क्यों नहीं लिखा ? तो इसके जवाब में मेरा यह कहना है कि अकलंक देवनं- 'श्वेताम्बरभाष्ये' या 'तत्त्वार्थभाष्ये' न लिम्व कर कांग 'भाष्ये' ही क्यों लिखा ? यदि उनका विचार वहां श्वेताम्बर भाष्य के लिये ही था तो म्पष्ठ लिखने में उन्हें क्या कोई अड़चन थी ? जब उन्होंने उस स्थल में केवल 'भाष्य' ही लिखा है तो स्पष्ट है कि उनका अभिप्राय अपने भाष्यका या 'सर्वार्थसिद्धिभा० ' का ही है । यदि वहां वे केवल • 'पूर्वत्र' शब्द ही लिख देते तो कदाचित् उससे उनके भाष्यका तो बांध भी हो सकता था, परन्तु सर्वार्थसिद्धि का तो बोध नहीं हो सकता था । यदि उन्हें दोनों ही भाष्य अभिप्रेत हों तो

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