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ईसाई मतके प्रचारसे शिक्षा
(लेखक पं० ताराचंद जैन दर्शनशास्त्री ) -><
भारत एक धर्मप्रधान देश है। इसमें विविध धर्मोके उपासक निवास करते और अपने अपने साधनका प्रयत्न करते आए हैं। भारतके प्रायः सभी धर्मोको समय समय पर अपने प्रचारकों द्वारा प्रगति करनेका अवसर मिलता रहा है और वे फूलते फलते भी रहे हैं। कितने ही धर्म वाले जो अपने मिशन को आगे बढ़ाने अथवा देश कालकी परिस्थिति अनुसार उसमें समुचित सुधार करने में असमर्थ रहे हैं, त्रे नष्ट प्राय होगये हैं। परन्तु जो धर्म अपने ऊपर छाए हुए विविध संकट कालांकी और परस्परके संघ तथा एक दूसरेको विनष्ट करनेकी कलुषित भावनाओ को जीतकर विजयी हुए हैं, वे अब भी भारतमें अपने अस्तित्वको बराबर बनाये हुए हैं। उनमें प्राचीन कालम दो धर्मोका प्रचार और उनकी परम्परा आज भी बनी हुई हैं, जिनमे जैनधर्म और वैदिकधर्म खास तौरस लेखनीय है।
यद्यपि धर्मके नामपर आजकल अनेक पाखण्ड और विरोधी मत-मतान्तर भी प्रचलित होगये हैं और धर्म नामपर धर्मकी पूजा भी होने लगी है, ऐसी स्थिति में कितने ही लोग जो धर्मके वास्तविक रहस्यमे अनभिज्ञ है, धर्मको समझने लगे हैं और उससे अपनेको दूर रखना ही अच्छा समझते हैं । परन्तु धर्मके धारकों में जो शिथिलता, अधार्मिकता अथवा विकृति आगई है उसे गल्लीमें हमलोगों मे धर्मकी ही विकृति समझ लिया है। वस्तुतः यह विकृति धर्मकी नहीं है। इस विकृतिका काय स्वार्थ र है. जो धर्म र धर्मका को स्वांग भरनेवाले व्यक्क्रियों द्वारा प्रसून धर्मो वह पदार्थ है जिसमे जीवोंका कभी भी अकल्याण नहीं होसकता । धर्मका स्वभाव ही सुख-शान्तिको उत्पन करना है। यदि धर्मकी यह महान होती तो उसे धारण करनेकी जरूरत भी न पड़ती और न महापुरुषोंके द्वारा उसके विधिविधानका इ प्रयत्न ही किया जाना। इससे स्पष्ट है कि धर्मकी महलामै
तो कोई सनेह नहीं है, परन्तु उसके अनुयायियों क शिथिखना, स्वार्थपरता और संकुचित दृष्टिका प्रसार होगया है, जिसके कारण उसके प्रचारमें भारी कमी आगई है। और यही वजह है जो जैनधर्म जैसे विश्वधर्मके अनुयायियोंकी संख्या करोड़ों घटने घटते वापर गई है। परन्तु फिर भी उन्हें उसके प्रचारकी कमी महसूस नहीं होती। वे स्वयं भी उसका श्रागमातुश्ल आचरण नहीं करने और न दूसरोंको ही उसपर अमल करनेका अवसर प्रदान करते हैं, प्रत्युत, उसपर अमल करने के इच्छुक अपने ही भाइयोंको उससे वंचित रखनेका प्रथम्भ किया जाता है इसीले जैनधर्मके अनुयायियोंकी संख्या में भारी हाल दिखाई पड़ता है। यदि दूसरे धर्म वालोंकी तरह अभी भी समयकी रानि विधिक अनुसार उदार दृष्टिसे काम लेते और अपने धर्मका प्रचार करते तो जैनधर्मके मानने वालोंकी संख्या भी बाज करोड़ों तक पहुंची होती। इन ही नहीं किन्तु जैनधर्म राष्ट्रधर्मक रूपमें नज़र आता । धार्मिक सिद्धान्तोंका उदार इष्टि प्रचारही उसके अनुयायियोंकी संख्यावृद्धिमें महायक होना है, प्रचार और उदार व्यवहारमें बड़ी शक्ति है।
इस प्रचार और उदार enerारकं कारण ही बौद्धमन, ईसाईमन और इस्लाम मजहब की दुनिया में भारी तरक्की हुई है और ये सब खूब फलं फुले हैं। यहां पर मैं सिर्फ ईमामनके प्रचार सम्बन्धमें कुछ कहना चाहता हूँ। ईपाई मतकं उद्देश्योंके प्रचारमें इसके अनुयायियों द्वारा जैमा कछ मन, मन और धन उद्योग किया गया है और आज भी किया जा रहा है उसके ऊपर दृष्टिपात करनेसे कोई भी आश्चर्य कित हुए बिना नहीं रहेगा। ईसाई मन का मुख्य ग्रंथ है बाइबिल, इसमें महात्मा ईसा (ईसु) के आदेश उपदेश और शिक्षा गुथी गई हैं। दुनियामें बाइबिल अथवा बालिके मालों का प्रचार किया गया है. मार में शायद उनमा अन्य ग्रंथोंका प्रचार नहीं हुचा होगा । मम्भवतः मंमारकी सम्पोखियोंमें ऐसी कोई भी बोबी