Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 650
________________ एक-पत्नी-व्रत लेखक-श्री 'भगवन' जैन] मानसिक कमजोरियोंमें वह भी अलग नहीं था। पर, नसके पाम आत्मिक-माहमकी भी कमी नहीं थी। वासना और प्रेम दोनों एक-शक्ति होकर उसे मजबूर किया, लेकिन वह डिगा नहीं, अपने प्रणाम ! नहियोंका हद-प्रेम उस पतनकी ओर धकेल रहा था। और वह जाना चाहता था अमरत्वकी पार ! उसके भीतर जो अध्यात्म-शक्ति थी। वह जो नौजवान था-समर्थ ! (१) दृश्य अब आँखोंके मामने श्राएगा, जिसके लिए एक शादीकी पिताको जितनी ही खुशी, पुत्रको उतना मुइनसे उनकी भाँखें तड़प रही हैं, और मन काना ही रंज ! अब सवाल उठता है- ऐमा क्यों ?'- के मीठे चित्र बनान-बिगाइनमें संलग्न रहा है ! इसके लिये पापको थोड़ा-सा बतलाना पड़ेगा!... वह म्वावसर है-कुबेकान्तकी शादी! कहानी पोगणक। कितन हजार वर्ष पहले पाणिग्रहण-महात्सव-विधान!!! की होगी, इसका कुछ ठीक नहीं ! पर, इतनी बात विवाह-मंडप तैयार है ! शहर-भरमें मानन्द जरूर -चमकी नाजगी अभी बरगर है, बासी- छाया हुआ है! वह मभी चीज है-जा उत्साह और पन सिर्फ नाम भरके लिए कहा जा सकता है। पैसकी ताक़नपर की जा सकती है। काफी चर्चा, हो, ता कुबेरकान्त एक समृद्धशाली-धनकुबेर हल-चल और धूम-धाम ! 'अमगओं-मी सुन्दर, का पुत्र है ! वह दुलारकी गोदम पला है, बैभव एक हजार पाठ कुमारियाँ विवाहाथ अपने-अपने प्रकाशमे उमने विकास प्राप्त किया है। और स्वाभा- परिवारसहित आई हुई हैं। जिनमें कई बड़े बड़े विक प्रेममं कई गुणा अधिक उस पिताका प्यार ताल्लुकेदार और गजाओंकी कन्याएँ भी हैं। और माताकी माना मिली है ! वजह यह है, वह एक हजार पाठ कुमागियोंकी शादी शायद आप पिताकी एकमात्र मन्तान है। विपुल-मम्मति अकेली. को कुछ खटके ! पर यह मांचकर आप अपना जानके लिए जा है-सब विस्मय दूर कर मकते हैं कि यह बात तब की है, कुबेरकान्त आज नौजवान है। -शकलके जब आठ-आठ हजार त्रियाँ रम्बना भी-व्यक्तिबारे में, यह कहना कि उसका ललाट अर्धचन्द्राकार विशेषों के लिए-ग्विाजकी बान मानी जाती थी ! है, आँखें आकर्षक, जादू-भर्ग-सा हैं, केश-राशि हाँ, मैं मानता हूं-आजमाप्रकरण ऐमा मममनम भ्रमर-सी काली है, दॉन दूधस श्वेत और ओठ उपा आपको रोक सकता है ! जोक औसतन दो भाइयों की अणिमास पूर्ण हैं ! सब, कवित्व पूर्ण साबित में एक व्याहा, एक धाग अधिकार देखने में माता होगा । सच तो यह होगा कि उस पाप 'सुन्दर' है ! पर, मानिए-तब एमा नहीं था। समझने के लिए मनमें किसी देवताकी कल्पना करलें! लम्बा-चौड़ा मायाजन, दुलेम-प्राप्य समयका कुबेरकान्तकी तरुणाईन,पिना-कुबेगमित्र-को शुभागमन और शानदारबाहिक-कार्यक्रम देखकर वह स्वर्णावसर ना दिया, जिसकी उन्हें इसके जन्म- कुबेरमित्र फूले नहीं समा रहे हैं ! उनके हवयमें जो दिनसं उत्कंठा थी! 'वर्षोंकी सद् इच्छाएँ, जो अब प्रानन्द मन्दाकिनी हिलारें ले रही है, वह शब्दोंतक मनक भीतर कैद थीं, आजादागी ! बह प्रिय- द्वाग शायद नहीं बनाई जा मकी! पुत्रकी सादी

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