Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 654
________________ वर्ष ४] अपना-वैभव पिताने पात्म-संतोषके साथ वाष्पाकुलितकण्ठस, सभी सुदृढस्वरमें बोली-'यह कैसा उपहास ?-प्रब सोत्सुक होकर कहा-'सच ?' दूसरी शादी कैसी ? इस जन्मके लिए तो हदयने वह बोली-हाँ । रत्न अब मेरे ही हाथमें आ कुबेरकान्तको वरण कर ही लिया था ! उनकी इच्छा गया है, पिताजी! व परणे, या न? पर, हम तो उनकी हो चुकी-सब! पिताके प्रत्यानन्दित कण्ठम निकला-भाग्य- पुनलंग्न अब केसा"? भारतीयताका ध्वंसक ! मदा. शालिनी है-बेटी! चारका शत्रु !! पाप-मूल !!! सब निरुत्तर! निर्निमेष !! आदर्श-युवक कुबेरकान्सकी शादी हुई-प्रियदत्ता के साथ ! सानंद, समारोहपूर्ण। देखा गया-तपस्विनी अनन्तमतीके निकट सब शेष कन्याओं के विवाहकी जब चर्चा उठी तो वे साधनामय जीवन बिता रही हैं ! अपना-वैभव (१) है दुराचारिणी-युवतीको प्रांवों-मी चंचन यह विभूनि ! जो स्वरूप-समयमें ही करती, प्रायः दुःसह-दुखकी प्रसूति !! लेकिन इस विश्व-मंचपर है, आदर इमको पर्याप्त, यों कि-- जो बने उपासक इसके हैं, भूने है वे जन 'स्वानुभूति' !! इस अखिन-सृष्टिकी माया भी, तुलनामें जिसके रहेम! उस महा-मून्य भाग्मिकताका जलना-बश, शठ कर रहा-बूम !! सौरभको जिप घूमना है, प्रान्तरमें विम्हल-सा कुरंग-- अपनी मुगन्धिके अनुभव-चिन ज्यों हाजीपर प्रमन!! (३) मिल जाय इसे पनि अपनी निधि, तो तुच्छ नगे सब धनागार । मानव, मानव बम जाय भोर--मिट जाए पशुना, कार" पा जाए या अनुपम-विभूमि, ध्रुवताम्मे जिसका गाद-प्रेम-- लेकिन है प्रावश्यक इसको-अध्यारम-प्रेमी , पद-विचार !! भी 'भगवत' जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680