Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 622
________________ भारतीय संस्कृतिमें जैनसंस्कृतिका स्थान लेखक-श्री बाबू जयभगवान जैन बी० ए०, एल एल० बी० वकील] we ='erभारतीय संस्कृति और उसके जन्मदाता- करना बताया है, भीतरी कमलोरियोंको दूर करनेके लिये भारतकी संस्कृति, जो नमानेके उतार-चढ़ाव में से होती आलोचना और प्रतिक्रमणका पाठ पढ़ाया है. आत्म विजय हई आई है. जो लम्बे मार्गकी कठिनाइयोको झेलती हई के लिये अहिंसा-संयम, तप-त्याग, दण्ड-ध्यानका मागे श्राई है, जो अपनी सहनशीलताके कारण आज अनित्यों में दिखाया है, वहाँ ब्राह्मणोंने इसे शरीरका स्वास्थ्य ठीक नित्य बनी हुई है, जो अपनी सभ्यनाके कारण अाज विभ- रखने के लिये ऋतुचर्या, दिन-रात्रि-वर्याका सबक दिया है, क्नोंमें अविभक्त बनी हुई है, जो सदा विश्व-कल्याणके लिये बिना विरोध मबही जिम्मेवारियोंको पूरा करने के लिये जीवन अग्रसर रही है, जो मदा पतितांको उठाती रही है, पीडितों को को चार श्राश्रमों में नकसीम करना और नित्यप्रति अपने उभारतीरही है, निर्बलोको बल देती रही है, भूले-भटकोंको राह समय को चार पुरुषार्थों में मर्यादित करना सिखाया है। बताती रही है, जो श्राज गुलामी में रहते हुए भी हमें ऊँचा जहाँ श्रमणोंने इसे 'मोऽहम', 'तत्त्वममि' का श्रात्मबनाए हुए है, दुःखी संमारकी दृष्टि अपनी ओर खींचे हुए है, मन्देश देकर इमकी दुविधाओको दूर किया है, कम इच्छाकिमी एक जाति, एक सम्प्रदाय, एक विचार-धागकी उपज कम चिन्ता-रूप त्यागका पाठ पढ़ाकर इनकी श्राकुलतानी नहीं है। यह उन अनेक जातियों, अनेक सम्प्रदायों, अनेक को हटाया है, 'जीयो और जीने दो रूप अहिंसाका उपदेश विचार-धागोकी उपज है, जिनका संघर्ष, जिनका संमेल देकर इमके मंक्लेशोको मिटाया है, वहाँ ब्राह्मणोंने वर्णभारतकी भूमिमें हुआ है। जिनका इतिहास यहाँकी विविध जातियांकी व्यवस्था करके हमके सामाजिक विरोधोंको दर अनुश्रनियो, लोकोक्तियों और पौराणिक कथाओंमें छिपा किया है, व्यवमायाँकी व्यवस्था करके इसके प्राथिक मंघर्ष पड़ा है, जिनके अवशेष यहाँके पगने जनपदों, पुराने पुरों को मिटाया है, कुटुम्ब और राष्ट्रकी व्यवस्था करके इसके और नगरोक खण्डरातमें दवे पड़े हैं। इनका उद्घाटन अधिकारीको मुगक्षत किया है। करने और रहस्य जाननेके लिये अभी लम्बे और गहरे जहाँ श्रमण मदा इसकी श्रात्मा के मंरक्षक बने रहे हैं. अनुमन्धानकी जरूरत है। परन्तु जहाँ तक परानी खोजोसे वहाँ ब्राह्मगा मदा हमके शरीर के संरक्षक बने रहे हैं। जहा पता चला है. यह निर्विवाद सिद्ध है, कि इस संस्कृति के श्रमण इमे श्रादर्श देते रहे हैं, वहां ब्राह्मण इमे विधिविधान मूलाधार दो वर्ग रहे हैं, ब्राह्मण और क्षत्रिय । इसके देत रहे हैं, जहा श्रमण निश्चय (Reality) पर प्रकाश विकासमें दो दृष्टियों काम करती रही है, आधिदैविक डालते रहे हैं, वहा ब्राह्मण व्यवहार (Practice) पर प्रकाश और श्राध्यत्मिक । इसकी नहमें दो विचार-धाराएँ बहती रही डालते रहे हैं। हैं,वैदिक और श्रमण । जहाँ श्रमणांने भारतको भीतरी सुख- इन अात्मा और शरीर, श्रादर्श और विधान, निश्चय शान्तिका मार्ग दर्शाया है, वहाँ ब्राह्मणोने इसे बाहरी मुख- और व्यवहारके सम्मेलसे ही भारत की संस्कृति बनी है, और शान्तिका मार्ग दिखलाया है। जहाँ श्रमणोंने इसे निश्रेयस् इनके मम्मेलसे ही हम संस्कृतिको स्थिरता मिली है। का उपाय सुझाया है, वहाँ ब्राह्मणांने इसे लौकिक अभ्युदय भारतीय-संस्कृति और उसकी विशेषताका उपाय बतलाया है। जहाँ श्रमणांने इसे भीतरी श्रानन्द यो तो मंमारके मब ही देशोंने बड़ी-बड़ी सभ्यताको के लिये प्रात्माको खोजना सिखाया है, भीतरी इंद्रियोंको जन्म दिया है। वेबीलोन और फलस्तीन, मिश्र और चीन, जगाने के लिये स्वेच्छासे परिषहो (कठिनाईयों) को सहन रोम और यूनान सब ही सभ्यताश्रांने अपनी कृतियोंसे मानवी

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