Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 638
________________ वि .१२] भाचार्य जिनसेन र मनका हरिवंय - लोगोंका राष्ट्र सो सौर-राष्ट्र या सौराह। मौराष्ट्रसे बढ़वाल कर सामन्त मा इससे एक सम्भावना यह भी है कि उक्त और उससे पधिमकी ओरके प्रदेशका ही प्रन्यकर्ताका भरणीवरााका ही को-पीड़ी पहलेका पूर्वजनीत अभिप्राय जान पाता है। यह राजा किस वंशका था, इस का ठीक ठीक पता नहीं चलता। हमारा अनुमान है कि पड़वापने ही पुनारसंघका एक और प्रेय बहुत करके यह चालुक्य वंशका ही कोई राजा होगा और जैसाकि पहले भी कहा जा चुका है पूर्वोक्त वर्तमानपुर 'बराई' उसको उसी तरह कहा गया होगा जिस तरकीति ___ या बढ़वाणमें ही हरिषेण नामके एक और प्राचार्य हुए। वर्मा (दि०) को 'महा-वराई' कहा है। बड़ोदामें गुजरातके राष्टकट राजा कर्कराजका श०सं०७३४का एक ताम्रपत्र' जिन्होंने श. सं.८५३ (वि.सं. १८६) में अर्थात् हरिमिला है जिसमें राष्ट्रकूट कृष्पके विषय में कहा है कि उसने वंशकी रचनाके १८ वर्ष बाद 'कथाकोश' नामक प्रन्यकी रचना की और ये भी उमी पुनाट संघके थे जिममें कि कीर्तिवर्मा महा वगहको हरिण बना दिया। चौलुक्योंके जिनसेन हुए हैं। हरिषेणने अपने गुरु भरतसेन, उनके गुर दानपत्रां में उनका राजाचह वराह मिलता है, इसीलिये श्रीहरिषेण और उनके गुरु मौनि भट्टारक तकका उल्लेख कविने कीर्तिधर्माको महा-वराह कहा है। घराभय भी वराह किया है। यदि एक एक गुरुका समय पचीस तीस तीस वर्ष का पर्यायवाची है। इसलिए और भी कई चौलुक्य राजाओं गिन लिया जाय, तो अनुमानसे हरिवंशकर्ता जिनसेन मौनि के नामके साथ यह घराभय पद विशेषणके रूप में जुड़ा भट्टारकके गुरुके गुरु हो सकते हैं या एकाध पीड़ी और हुआ मिला है। जैसे गुजरात के चौलुक्योकी दूसरी शाखाके पहलेके । यदि जिनमेन और मौनि भट्टारकके बीनके एक स्थापनकर्ता जयसिंह पराश्रय, तीसरी शाखाके मूल पुरुष दो प्राचार्योका नाम और कही.मालूम हो जाय तो फिर जयसिंह धराभय (दि.), और उनके पुत्र शिलादित्य इन ग्रन्थोसे वीर-निर्वाणसे श. सं.०३ तककी अर्थात धराभय। १८ वर्षकी एक अविच्छिन्न गुरुपरम्परा तैयार हो राष्टकटोसे पहले चौलुम्य सार्वभौम राजा थे और सकती है। काठियावाडपर भी उनका अधिकार था। उनसे यह सार्व- श्रा.जिनसेन अपने गुरु कीनिषेणके भाई अमितसेन भौमत्व श.सं. ६७५ के लगभग गष्ट्राटोने छीना था, को जो सौ वर्ष तक जीवित रहे थे खास तौरसे 'पवित्रपुनाटइसलिए बहुत सम्भव यही है कि हरिवंशके रचनाकालमें गणाग्रणी' कहा है. जो यह ध्वमित करता है कि शायद काठियावाइपर चौलुस्य वंशकी ही किसी शाखाका अधिकार पहले पालवेही काठियावाड़में अपने संघको लाये थे। हो और उसीको जयवराह लिखा हो। पूरा नाम शायद पुनाट संघ काठियावाड़में जयसिह हो और वराह विशेषण। राठोड़ोका या सामन्त भी हो सकता है और स्वतन्त्र भी। यो तो मुनिजन दूर दूर तक सर्वत्र ही विहार करते प्रतीहार राजा महीपाल के ममयका एक दान-पात्र' राते है परन्तु पुनाट संघका सुदुर कर्नाटकमे चलकर डाला गाँव (काठियावाड़) से श० सं०८३६ का मिला काटियावाड़में पहुंचना और वहाँ लगभग दो सौ वर्ष तक है। उससे मालम होता कि उस समय बदमागमें घरसी रहना एक असाधारण पटनासिका सम्बन्ध दक्षिण वराहका अधिकार था जो चावड़ावंशका था और प्रतिहारों चोलुक्य और गष्टकट मजामोसे ही अन पहनामिनका शासन काठियावाड़ और गुजरात में बहुत समय तक रहा। १ इण्डियन एण्टिक्वेरी भाग १२, पृ. ११६ | और जिन राजवंशोकी जैनधर्नपर विशेष कमा रही है। २ यो युद्धकएइतिग्रहीतमुन्चैः शौर्योष्मसंदीपितमापतम्तम् । अनेक चालुम और राष्ट्रकूट राजाओं तथा उनके मायह__ महावराई हरिणीचकार प्राज्यप्रभाव: स्खलु राजसिहः ॥ लिकोने जेनमुनियों को दान दिये है और उनका श्रादर ३ देखो महाराष्टीय ज्ञानकोश जिल्द १३, पृ.७३-७४ किया है। उनके बहनसे, अमात्य, मंत्री, मेनाति नादि तो ४देखोइम्तियन एस्टिक्वेरी जि. १२, पृ. १६३-१४ जैनधर्मके उसककहाऐमी दशामें यहम्समाविक

Loading...

Page Navigation
1 ... 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680