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दोनों पक्षोंमें कौनसा ठीक है, यही समालोचनाका विषय है (उभयाग्नयोः पक्षयोः कतगे याथातथ्यमुपगच्छतीति समालोचनीयः), " और इसतरह दोनों पक्षों के सत्यासत्यके निर्णयकी प्रतिज्ञा की है । इस प्रतिज्ञा सथा लेखके शीर्षक में पड़े हुए 'समालोचना' शब्दको और दूसरे विद्वानोंपर किये गये तीव्र आक्षेपको देख कर यह आशा होती थी कि शास्त्रीजी प्रकृत विषय के संबंधमे गंभीरता के साथ कुछ गहरा विचार करेंगे, किसने कहाँ भूल की है उसे बतलाएँगे और चिरकाल में उलझी हुई समस्याका कोई समुचित हल करके रक्खेंगे । परन्तु प्रतिज्ञा के अनन्तर के वाक्य और उसकी पुष्टिमें दिये हुए आपके पाँच प्रमाणों को देखकर वह सब आशा धूल में मिल गई, और यह स्पष्ट मालूम होने लगा कि आप प्रतिज्ञा के दूसरे क्षा ही निर्णायक के आसन में उतरकर एक पक्षके साथ जा मिले हैं अथवा तराजू के एक पलड़े में जा बैठे हैं और वहाँ ग्वड़े होकर यह कहने लगे हैं कि हमारे पक्ष के अमुक व्यक्तियों जो बात कही है वही ठीक हैं; परन्तु वह क्यों ठीक है ? कैसे ठीक है ? और दूसगंकी बात ठीक क्यों नहीं है ? इन सब वातोके निर्णयको आपने एकदम भुला दिया है !! यह निर्णयकी कोई पद्धति नहीं और न उलझी हुई समस्याओं को हल करने का कोई तरीका ही है । आपके पाँच प्रमाणों में से नं० २ और ३ में तो दो टीकाकारों के अर्थका उल्लेख है जो गलन भी हो सकता है, और इसलिये वे टीकाकार अर्थ करनेवालों की एक कोटिमे ही आ जाते है। दूसरे दो प्रमाण नं० २, ४ टीकाकारोंमें से किसी एक के अर्थ का अनुसरण करनेवालों की कोटमे रक्खे जा सकते हैं । इस तरह ये चारों प्रमाण 'शकराज' का गलत अर्थ करनेवालों तथा गलत अर्थका अनुसरण करने
अनेकान्त
[ वर्ष ४
वालोंके भी हो सकने में इन्हें अर्थ करनेवालों की एक कोटि में रखने के सिवाय निर्णय के क्षेत्र में दूसरा कुछ भी महत्व नहीं दिया जा सकता और न निर्णयपर्यंत इनका दूसरा कोई उपयोग ही किया जा सकता है । मुकाबले में ऐसे अनेक प्रमाण रक्खे जा सकते हैं जिनमें 'शकराज ' शब्दका अर्थ शालिवाहन राजा मान कर ही प्रवृत्ति की गई है । उदाहरण के तौरपर पाँचवें प्रमाणके मुकाबले में ज्योतिषरत्न पं० जीयालाल जी दि० जैनकं सुप्रसिद्ध 'अमली पंचाङ्ग' को रक्खा जा सकता है, जिसमें वीरनिर्वाण सं० २४६७ का स्पष्ट उल्लेख है - २६०४ की वहाँ कोई गंध भी नहीं है ।
हा शास्त्राजीका पहला प्रमाण, उसकी शब्दरचनापरसे यह स्पष्ट मालूम नहीं होता कि शास्त्रीजी उसके द्वारा क्या सिद्ध करना चाहते है । उल्लिखित संहिताशास्त्रका आपने कोई नाम भी नहीं दिया, न यह बतलाया कि वह किसका बनाया हुआ है और उसम किस रूपसे विक्रम राजाका उल्लेख आया है वह उल्लेख उदाहरणपरक है या विधिपरक, और क्या उसमें ऐसा कोई आदेश है कि संकल्पमे विक्रम राजाका ही नाम लिया जाना चाहिये - शालिवाहन का नहीं, अथवा जैनियों का संकल्पादि सभी अवसरों पर - जिसमे प्रन्थरचना भी शामिल है - विक्रम संवत्का ही उल्लेख करना चाहिये, शक-शालिवाहन का नहीं ? कुछ तो बतलाना चाहिये था, जिससे इस प्रमाणकी प्रकृतविपयके साथ कोई संगति ठीक बैठती । मात्र किसी दिगम्बर प्रन्थ में विक्रम राजाका उल्लेख श्रजाने और शालिवाहन राजाका उल्लेख न होनेसे यह नतीजा तो नहीं निकाला जा सकता कि शालिवाहन नामका कोई शक राजा हुआ ही नहीं अथवा दिगम्बर साहित्य में उसके शक संवत्का