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जल्लाद
[लेखक-श्री भगवत् जैन]
बोले-'सबने व्रत-नेम लिये हैं, कुछ तुम पारम-मयोगसे लोहा स्वर्ण कैम बन जाता है, भी लो।' यह उमक व्यक्तित्वमे जाना जा सकता था ! वह 'मैं..? महागज, मैं ? मैं अछूत हूँ ! जल्लाद हूँ ! हिंसा-कर्मम रत रहनेवाला-एक वधिक था, जल्लाद मेरा रोजगार है हत्या करना ! मैं भला प्रत-धर्म क्या था ! गजाज्ञा-दाग अपराधियों को प्राग-दण्ड देना, कर सकता हूँ ? वह तो ऊँची-जात उच्च-कुल वालों उसका पेशा था! गटियोंका मवाल वह इमीके द्वाग के लिए हल किया करता था। वह पतिन था, अछुन था,- 'नहीं, भूलते हो तुम ! धर्माचरणका अधिकार जन्मस और कर्मस भी !
सबको समान है। इसमें छूत और अछूतका ___काला-कोवर-मा, कायले-मा, काजल-मा, भ्रमर- भंद नहीं । सब, अपनी-अपनी श्रेणी और योग्यतामा, कायल-मा-शरीर ! बाल भी ऐसे ही ! शायद नुमार व्रत-नियम ले सकते हैं ! अरे धर्मके द्वारा ही शरीरकी अधीनना अच्छी तरह निभती चली जाए, तो मनुष्य पतितसे पावन बनता है-भोले भाई! यही मांचकर तरूप बने हुए थे। बड़ी-बड़ी सुर्ख जल्लाद चुप रहा, कुछ देर !
आंग्वे, चौड़ी नाक और मोटे-माटे श्राठोंक भीतर लेकिन स्वामीजी ! मैं व्रतको निभा कैसे बदबूदार लम्बे-लम्बे दाँत ! ठिगना कद और गक्षस- सकूँगा ? गज्य-आज्ञाकी अवहेलना तो नहीं की की नरह-अगर आप कल्पना कर सकते हैं तो- जा सकेगी, न ? ... गठी हुई देह ! ऐमा था-वह ! कोई दंग्यता तो भया- 'ठीक! किन्तु करने वाले व्यक्तिसं क्या कुछ नक-रमकी साक्षान मूर्ति कहे बिना न रहना, इममें छूटा है-माज तक ? अनन्त-शक्तिका मालिक जग भी सन्देह नहीं है।
मनुष्य ही तो एक दिन परमात्मा कहलाता है न ? __पर, वसं ऐमा हाना ही चाहिए क्योंकि वह और जब करना विचारा, सब गजा ता चीज क्या, जो जल्लाद है ! उमक नामकी मार्थकना-उसके देवी-बाधाएँ भी कुछ बिगाड़ नहीं सकती। करने शरीर, हृदय. कर्म सभीपर ता निर्भर है ! वाला सब कुछ कर गुजरता है।
हॉ. तो वह एक दिन वनमें गया ! देखा- माधु-संगतिका प्रभाव उस पतित-हदयपर भी एक साधु कुछ भक्तोंके बीच बैठे उपदेश दे रहे हैं! पड़े बरौर न रह सका। जब वह घर लौटा, तो एक एक सरसरी नज़र डालता हुआ वह आगे बढ़ा, बढ़ कल्याणकारी-प्रतिझा उसके साथ थी, कि-'चतुभी गया दो-चार कदम कि योगिराजने उसे रोका। देशीके दिन किसीका वध न करना!' वह एक ओर बैठ गया-सनम्र!
सोचता जा रहा था, बह-प्राण देकर भी अब