Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 598
________________ किरण १.] जैनधर्मको देन जो पई जोइउ जोइया तित्थई तित्थ भमेइ। कायायोग श्रादि जो तत्व मिलते हैं. वे सब नेपालसे प्राप्त मिस पई सिह हिडियउ लहिविण सक्किउनोइ(१७९ बौद्ध गान और दोहाम भी पाए जाते हैं। नाथपंथकी -हे योगी, जिसे देखनेके लिए तीर्थ-तार्थ घूमना रि वाणी और गोरक्ष प्रभृति के वचनोम इन्दी मब बानाका रहा है. वह शिवस्वरूप तेरे ही माय-माय चल रहा है। उल्लेख मिलता है। इसी कारण, किस मम्प्रदायने इन तब भी, हाय, उसीको उपलब्ध नहीं कर पाता!' मस्याको मबसे पहले अनुभव किया, यह कहना कठिन इसी प्रसंगमे उपनिषदोकी भी दो-एक बाते कहता हूँ। है। जान पड़ता है. उस युग की भारतीय माधनाका श्राकाश मैत्रेयी उपनिषद में भी इमी देव-देवालयकी बात कही । गई है: 'इन्दी मब मत्यां और माधनाकी वाणियोसे भरपूर था। देहो देवालयः प्रोक्तः । (२९) इमीलिए उम ममयके मम्मी मम्प्रदायाँकी साधनाश्रोपर इन मैत्रेय और भी कहते हैं :-- मच भावोंकी छाप पड़ी है। पाषाणलोहमणि-मृन्मय-विग्रहेषु यह बात माननी दी होगी कि कबीर प्रभति ने जिस पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षोः। मत्यको ५०० वर्ष बाद प्रकाशित किया, उसे प्रायः ७००० तस्माद्यतिः स्वदयार्चनमव कुर्या ईम्लीमें--बहुत परले-मुनि राममिहने उपलब्ध और द्वाह्मार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय ॥ (२६१७) प्रकाशित किया था । मनि गमसिंहकी प्रत्येक बात उनके -'पापागा-लोह-मणि मृनिका-निर्मित विग्रह की पृजामे अन्तरका वदनाक भातग्स उच्छवासत हुइ, इमा बार-बार जन्म-भोग करना होता है। कारण, मुक्तिवार्थीका कीकही बहुत तीन है । श्राजके युगकी लोगोको भुलानेवाली वह पथ नही है। इमामे यती अपनर्भव मक्निके लिए श्रोर जनताको नशे में मन कर देनेवाली कला वे नहीं बाह्यार्चना परित्याग करके स्वहृदयार्चन अर्थात् हृदयस्थित जानते थे । कृत्रिम भद्रता उन्होंने कभी धारण नही की। देवताकी ही पूजा करेंगे। अपने निजी दुःखकी बात कहते हुए सच्चे मरमी तब बाह्य संध्या-पूजा का अवमा कहाँ है ? इमीम राममिद कहते है:मैत्रेयी कहते है: वणि देवलि तित्थई भमहि आयामो विणियतु । मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुनः।। अम्मिय विहडिय भेडिया पसुलोगडा भमंतु ।। (१८७) सूतक-य-संप्राप्ती कथं संध्यामुपास्महे ॥ (२७४) -'वन, देवालय, तीर्थ-तीर्थ में भटकता फिरा, श्राकाशकी -मोहमयी है हमारी माता मृता, बोधमय सुत हा गया और भी व्यर्थ ताकता रहा, इमी भटकने में पशु और है जातक ; दो सूतक संसान होकर किस तरह संध्योगसना भेडोके माथ मिलन हुअा।' मनि गमसिंह कहने हैं :वर्णाश्रमाचाग्युता विमूढाः हत्थ अहहं देवलो वालह णा हि पवेसु । कर्मानुसारेण फलं लभन्ते । ( ११३) सन्तु णिरंजणु तहिं वसइ णिम्मलु होइ गवेसु॥(९४) हम अवस्था में पहुँच कर माधक देखते हैं कि 'विमूढ 'बाहिर नहीं है-माढ़े तीन हाथके उमी देह-देवालयमें बाह्यवर्णाश्रमाचारयुक्तगण कर्मफल लाभ करने के लिए है, जद्दों बालका प्रवेश नहीं है: सन्त निरंजनका वही बाध्य है, इसीसे बद्ध है।' निवाम है। निर्मल होकर उनका अन्वेषण करो।' मैत्रेय कहते हैं कि साधकोंके लिए अभेद दर्शन ही मूढा जोबइ देवलई लोयहिं जाई कियाई। ज्ञान, मनको निर्विषयी करना ही ध्यान, मनकी मलिनता देहण पिच्छह अप्पणिय जहिं सिउ संतु ठियाई(१८०) दर करना ही स्नान और इन्द्रिय निग्रह ही शौच है:- -'मूर्ख लोग मानव-रचित देवालयों में घूम-घूमकर मरे अभेददर्शनं झानं ध्यानं निर्विषयं मनः। जाते हैं, अपने देहरूपी देव-मन्दिरको तो देखते नहीं, जहाँ स्ना मनोमलत्यागः शोचमिन्द्रियनिग्रहः ।।(२२) शान्तं शिवं विराजमान है. मुनि रामसिंहके भीतर प्रम-साधना, समरस, देहतत्त्व, वंदहु बहु जिणु भणइ को वंदर हलि इत्यु ।

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