Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 602
________________ भ० महावीरके निर्वाण-संवत्की समालोचना [मूल ०-५० ए० शान्तिराज शास्त्री, भास्थान विद्वान मैसूर राज्य] (अनुवादक-५० देवकुमार, मूडबिद्री) जैनियोंके परम पूज्य तीर्थकरोंमें अन्तिम तीर्थकर उपस्थित हुई। समालोचनाके होनेपर निम्नलिखित प्रमाणों भगवान महावीरको मुक्त हुए कितने वर्ष हो गये, यह परसे यह निष्कर्ष निकला कि अाज जो महावीर निर्वाणविचार करना ही इस लेखका लक्ष्य है, जैसा कि लेखके संवत् उपदर्यमान है वह ठीक नहीं है । यथा: में सूचित है। किमी भी विषयका समालाचनाका गोमटसारादि ग्रन्थोंके कर्ता, बीर मार्तण्ड चामुण्डराय अवसर प्राप्त होनेपर ही उसके मूलान्वेषणके शानकी के धर्मगुरु और दि. जैनियोंके पूज्य भी नेमिचन्द्र-सिद्धान्तप्रवृत्ति होती है-इतर ममयमें नहीं। देवेंद्र अवधिज्ञानसे चक्रवती प्राचार्य ने स्वरचित त्रिलोकसारमें यह गाथा सम्पन्न है फिर भी परमदेव तीर्थकरोके गर्भावतरणादि कल्याणोंको जानने में उसके ज्ञानकी प्रवृत्ति स्वयं नहीं होती, पणछस्सदवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिबुहदो। किन्तु श्रासनकंप रूपनिमित्तको पाकर ही होती है। खगराजो तो कक्की चतुणवतिय-महिय सगमासं ॥८२०॥ दिगम्बर जैन समाजमें 'जैनगजट', 'जैनमित्र'. 'जैन इस गाथाका अभिप्राय यह है कि श्री महावीरकी सिद्धान्तभास्कर', 'अनेकान्त', 'जैनबोधक' 'जैनसंदेश', 'खंडेलवाल जैन, हितेच्छु' श्रादि जितनी भी पत्रिकाएँ निर्वाण-प्राप्तिसे ६०५ वर्ष ५ महीने के अनन्तर शकराजकी प्रकाशित होती है उन सबमें श्वेताम्बरजैनसम्प्रदायके अन उत्पत्ति हुई। इसके बाद ३४ वर्ष • महीने बीतनेपर सार ही वर्तमानमें श्रीमहावीरनिर्वाणसंवत् २४६७ उल्लिखित अर्थात् महावीर-निर्वाणके एक हजार वर्षोंके अनन्तर कल्की किया जाता है। पं०जुगलकिशोर, पं०नाथूराम प्रेमी, प्रो०१० का प्रादुर्भाव हुआ है। एन० उपाध्याय श्रादि संशोधक विद्वानों (Research विक्रमराजान्दके ५८ वर्षों के बाद किस्ताम्द, किस्ताब्द Scholars) ने भी स्वसम्पादित अन्य • प्रस्तावना- के ७८ वर्षों के बाद शालिवाहनशकका प्रारम्भ होता है। लेखनके अवसरपर बिना विचारे ही इस मार्गका (श्वेताम्बर विक्रमराजान्द और शालिवाहनशकोंमें १३६ वर्षाका सम्प्रदायके अनुसार ही वीरनिर्वाण-सम्वत्को उल्लिखित अन्तर है । अर्थात् विक्रमनृपसे १३६ वर्षीके पश्चात् करने रूप गतानुगतिक पद्धतिका) अनुसरण किया है, ऐसा शालिवाहन शकका प्रारम्भ होता है। विक्रमनृपान्दको प्रतीत होता है। 'संवत्' तथा शालिवाहन शकको 'शक' कहनेका व्यवहार यहाँ मैसूर-ओरियंटल-लायब्ररीसे प्रकाशित होनेवाली है। दक्षिण देशमें तो महावीरशक, विक्रमशक, क्रिस्त तत्वार्थ-मुखबोध-वृत्तिकी (संस्कृत में) प्रस्तावना लिखनेके शक और शालिवाहन शक इसप्रकार सर्वत्र 'शक' ग्रन्दकी अवसरपर बीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनाकी आवश्यकता योजना करके व्यवहार चलता है। इस समय विक्रमनृप

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