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दस्सा-बसा भेदका प्राचीनत्व
ले० - अगरचन्द नाहटा, )
जैन एवं जैनेनर जानियो में दस्मा, बीमाका भेद सैकड़ों वर्षों से चला रहा है, पर यह भेद कब और किम कारण मे हुआ, इसका अभीतक निश्चय नहीं हो पाया। कारण है ममाकालीन प्रमागोवा श्रभाव। इधर करीब ३००-४०० वर्षो एक प्रवाद भी प्रसिद्ध हो चला है कि वस्तुपराल, तेजपाल विधवा के पुत्र थे और उनके कारण ही इस भेदकी सृष्टि हुई है। कथा यो बताई जाती है कि एक बार जातिभोजके समय उनके विधवा-पुत्र हानेकी बात पर चर्चा लड़ी फलतः जो व्यक्ति उनके पक्ष में रह इन्हे विरक्षी पाटने 'दस्मा' नाममे सम्बोधित किया, जिन्होंने उनके साथ व्यव हार किया वे बीमा कहलाये, पर विचार करने पर यह कारण समीचीन प्रतीत नहीं होता ।
मंत्रीवर वस्तुगल तेजपाल के सम्बन्धमं समाकालीन बहुतसी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। इनके ताने कुमारदेवी नामक एक विधवा स्त्रीको पनी पत्नी बनाया था और उमीकी कुक्षिवस्तुपाल व तेजालका जन्म हुआ था, इम का सबसे प्राचीन प्रमाण मं० १३६१ मे रचित प्रबंध चितामणि' ग्रन्थ है । पर इस ग्रन्थ में तथा इसके १५० वर्ष के रचित अन्य किसी ग्रन्थ मे भी दस्मा बीमा भेद इनके कारण हुआ ऐसा निर्देश नहीं है। अर्थात् घटनाके करीब ३५० वर्ष तकका एक भी प्रमाण इस प्रवाद के पक्ष समर्थनका उपलब्ध नही है, फिर भी श्राचर्य है कि पिछले प्रमाणों पर निर्भर करके सभी विद्वाना। ने यही कारण निर्विवाद रूप मे स्वीकार कर लिया है । उक्त कारणके समर्थन में मुनि जानसुन्दरजीने निम्न प्रमाण अपने 'संगठनका डायनामा' * ग्रोमवाल, श्रीमाल, पोरवाड़, हुबड, परवार श्रादि । दस्मात्रीमा केवाली नाम लघु-वृद्ध शाखा भी हैं। +श्रीमाली जातिनो वणिकभेद, जैनमाहित्यनो संक्षिप्त इतिहाम (१०३६०) के लेखक, पं० नाथूरामजी प्रेमी, मुनि ज्ञानसुन्दर जी श्रादि ।
नामक ट्रेक्टम बतलाये हैं:
१२० १५०३, उपवेशगच्छ्रीय पद्मप्रभोपाध्याय की पट्टावली
२०१५७८, सौभाग्यनंदि सुरि-रचित विमल चरित्र ३ सं० १६८१, देवसुन्दरोपाध्याय रचित वस्तुपालतेजपाल राम
४ सं० १७२१, मेरुविजय रचित वस्तुपाल - तेजपालराम ५ कन्हड़देगम, ६ ब्राह्मणोत्पनि मार्तण्ड
७ सं० १८८१, सोहमकुलपट्टावली, ८ सन १६१५ के जे० श्वे० का० हेरल्डमे प्रकाशित पट्टावली, ६ अन्य पट्टावालयों।
इनमे न० १ व ३ प्रमाण तो अद्यावधि प्रकाश में नहीं ग्राये हैं, अतः उनमें क्या लिखा है ? यह ज्ञात है । नं० २ प्रमाण मे मुनिजी लिखित लघु-वृद्ध शाखाकी उत्पत्ति वस्तुपाल तेजपालम लिखी है यह बात है ही नहीं । उसमें तो इस भेदका कारण दूसरा ही बतलाया है और उसमे
जातिभेदका समय बहुत पहलेका निश्चित होता है। यथाद्वादशायनदुभिक्षे, म पिशितभोजिनः । श्रभूतं सुभिक्षेऽपि तन्न मुञ्चति भक्षणे ॥ ५५ ॥ सम्भूय साधुभिर्विप्रेरयागमवचश्वयैः । बोधिता न निवर्तन्ते नितरा रमलोभनः (लोलुपः ) ||५६ परस्परं वितन्वंति विचारमिति केवलम | एवं प्रकुर्वतामेषा पूर्ववच्चेक वर्णता ॥ ५७ ॥ व्यवस्था किरते तस्माद् तद्दोषनिवृत्तये । श्रस्माभिः सर्वनमांकाना, सममिति सादरम् ||५८ ॥ तथाहि :- ये पुमामो न कुर्वन्ति,
गण्डादिस्त्रीपरिग्रहम् । मद्यमामाशनं चापि तस्मात्पंक्ति मध्यगाः ॥ ५६ ॥ रण्डादिसंग्रहं ये तु मद्यमामादिभोजनम् । वितन्वम्यतिनिर्लजा पंक्त्याः सदेव ते ॥ ६० ॥ प्राग्वाटाया विशति, विशपिका ज्ञातयो भवन यस्मात् ।