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किरण १.]
धीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनापर विचार
जिन विद्वानोंने 'शकगज' शब्दका अर्थ 'शकराजा' न बाहन शक की सबसे अधिक प्रसिद्धि हुई है और इस करके 'विक्रमराजा' किया है उन्होंने जरूर गलती लिय बादको दूसरे सम्-संवतांके साथ भी 'शक' का खाई है। और यह भी संभव है कि त्रिलोकसारके प्रयोग किया जाने लगा और वह मात्र 'वत्सर' या संस्कृत टीकाकार माधवचन्द्रन ‘शकगजो' पदका 'संवत्' अर्थका वाचक होगया। उसके साथ लगा हुमा अर्थ शकराजा ही किया हो, बादको 'शकगजः' से महावीर, विक्रम या क्रिस्त विशेषण ही उस दूसरे पूर्व विक्रमांक' शब्द किसी लेखककी गलतीसे जुड़ अर्थमें ले जाता है, स्वाली 'शक' या 'शकराज' शब्द गया हो और इस तरह वह गलती उत्तरवर्ती हिन्दी का अर्थ महावीर, विक्रम अथवा क्रिम्त (क्राइस्ट = टीकामें भी पहुंच गई हो, जो प्रायः संस्कृत टीकाका ईसा) का या उनके सन्-संवतोंका नहीं होता। ही अनुमरण है । कुछ भी हो, त्रिलोकसारकी उक्त त्रिलोकसारकी गाथाम प्रयुक्त हुए शकराज शब्दके गाथा नं० ८५० में प्रयुक्त हुए 'शकराज' शब्द का अर्थ पूर्व चूँकि विक्रम' विशेषण लगा हुभा नहीं है, इस शकशालिवाहनके सिवाय और कुछ भी नहीं है, लिये दक्षिणदेशकी उक्त रूढिके अनुसार भी उसका इस बातको मैंने अपने उक्त (पुस्तकाकार में मुद्रित ) अर्थ 'विक्रमराजा' नहीं किया जा सकता। 'भगवान महावीर और उनका समय' शीर्षक निब- ऊपरके इस संपूर्ण विवंचनपरसे स्पष्ट है कि म्धम भले प्रकार स्पष्ट करके बतलाया है, और भी शास्त्रीजीने प्रकृत विषयके संबंध जो कुछ लिखा है दूसरे विद्वानोंकी कितनी ही आपक्तियोंका निग्मन उसमें कुछ भी सार तथा दम नहीं है । भाशा है करके सत्यका स्थापन किया है।
शास्त्रीजीको अपनी मूल मालूम पड़ेगी, और जिन ___ अब रही शास्त्रीजी की यह बात, कि दक्षिण देश लोगोंने आपके लखपरसं कुछ गलत धारणा की होगी में महावीरशक, विक्रमशक और क्रिम्नशकक रूपमं वे भी इस विचाग्लेखपरस उस सुधारने में समर्थ भी 'शक' शब्दका प्रयोग किया जाता है, इससे भी हो सकेंगे। उनके प्रतिपाद्य विषयका कोई समर्थन नहीं होता।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० २६-१६-१९४१ ये प्रयोग तो इस बातको सूचित करते हैं कि शालि
"त्यागके साथ कर्तव्यका भी भान होना चाहिये, "त्यागको बड़ा स्वरूप देनेकी आवश्यकता नहीं तभी जीवन संतोषपूर्ण हो सकता है । अर्थान् अपनी होती । म्वाभाविक त्याग, प्रवेश करनेके पहिले वाजे सब प्रवृत्तियां विवेकदृष्टिस ही होनी चाहियें" नहीं बजाता । वह अदृश्यरूपसे भाता है, किसीको ___ "इस युगमें थोड़ी भक्ति और थोड़ा संयम भी खबर तक नहीं पड़ने देता । वह त्याग शोभित होता फलीभूत हो जाता है।"
और कायम रहता है। यह त्याग किसीको भारभूत "जिस वैराग्यमें कोई महान् और क्रियाशील नहीं होता और न संक्रामक साबित होता है।" साधन नहीं है, वह वैराग्य वैराग्य नहीं, वह तो
-विचारपुष्पोपान असभ्यताका नामान्तर है।"