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परिग्रहका प्रायश्चित्त
[सम्पादकीय ]
'प्रायश्चित्त' एक प्रकारका दण्ड अथवा तपोविशन है और चित्तका अर्थ वही 'शुद्धि' अथवा 'विसमाहर्म' जो अपनी इच्छासे किया तथा लिया जाता है, और उसका समझना चाहिये। उमेश्य एवं लक्ष्य होता है प्रात्मशुद्धि तथा लौकिकजनोंकी
परिग्रहको शासकारोंने, पचपि, पाप बताया है और
हिंसादि पंच प्रधान पापोंमें उसकी गणमाकी है, फिर भी चित्तशुद्धि । भारमाकी अशुद्धिका कारण पापमल है-अप.
लोकमें वह पाम तौरसे कोई पाप नहीं समझा जाता-हिंसा राधरूप आचरण है। प्रायश्चित्तके द्वारा पापका परिमार्जन
झूर, चोरी और परवी-सेवनादिरूप मशीन को जिस और अपराधका शमन होता है, इसीसे प्रायश्चिराको पापछेदन । मलापनयन, विशोधन और अपराधविशनि से नामोसी प्रकार पाप समझा जाता है और अपराध माना जाता उस उझेखिन किया जाता है। इस दृष्टिसे 'प्राय प्रकार धन-धान्यादिरूप परिग्रहके संचयको-उसमें रपये
सहनेको कोई पाप नहीं समझता और न अपराधही मानता पाप-अपराध, और 'विस' का अर्थ शुद्धि है। पाप तथा
है। इसीसे लोकमें परिग्रहके लिये कोई दण्ड-म्यवस्था अपराध करने वाला जनताकी नजरमें गिर जाता-जनता
नहीं-जो जितना चाहे परिग्रह रख सकता है । भारतीय उसे घृणाकी दृष्टिसे-हिकारतकी नज़रसे देखने लगती है और
दण्डविधान ( Indian penal code ) में भी ऐसी उसके हृदयमें उसका जैसा चाहिये वैसा गौरव नहीं रहता।
कोई चारा नहीं, जिससे किसी भी परिग्रहीको अथवा अधिक परन्तु जब वह प्रायश्चित्त कर लेता है-अपने अपराधका
धन-नौषात एकत्र करने वाले तथा संसारकी अधिक सम्पत्तिदण्ड ले लेता है तो जनताका हदय भी बदल जाता है और
विभूति पर अपना अधिकार रखने वाले गृहस्थको अपराधी बह उसे ऊँची, प्रेमकी तथा गौरव-भरी रष्टिसे देखने लगती
एवं दयाका पात्र समझा जासके। प्रत्युत्त इसके, जो लोग है। इस दृष्टिसे प्रायः का अर्थ 'जोक' तथा 'लोकमानस'
मित्रों, कल-कारखानों और व्यापारादिके द्वारा विपुजन * "रहस्यं छेदनं दण्डो मलापनयनं तपः।
एकत्र करके बहुविभूतिके स्वामी बनते हैं. उन्हें बोकमें प्रतिप्रायश्चित्ताभिधानानि व्यवहारो विशोधनम् ॥६॥" हित समझा जाता है, पुण्याधिकारी माना जाता है और पावर "प्रायश्चित्तं तपः श्लाघ्यं येन पापं विशुति ॥१८॥"
की रप्टिसे देखा जाता है। ऐसी हालत में उनके पापी तथा --प्रायश्चित्तसमुच्चय
अपराधी होने की कोई कल्पना तक भी नहीं कर सकता-जरें "प्रायाचिति चित्तयोगिति सुट अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः।
वैसा कहने-सुनने की तो बात ही कहा? फिर 'परिग्रहका प्रायस्य चित्तं प्रायश्रित-अपगधविशुद्धिरित्यर्थः।" --राजवार्तिक । २२।१ प्राया
प्रायश्चितसा और उसे पाप बतलामा भी सा! + प्रायो लोकस्य चित्तं मानसं । उम्तंच--
बाहीको किपरिमाको बोको हिंसादिक पापांकी "प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनोभवेत् ।
रप्टिसे नहीं देखा जाता, सभी उसकी चकाचौथो फैस, तश्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतं ॥"
समी उसकेगा और सभी अधिकाधिकरूपले परिणा--प्रायश्चित्तसमुच्चय-वृत्ति भारी समाचाहते। ऐसे अपरिबडी सये सामीप्रायः