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किरण []
बुन्देलखण्डका प्राचीन वैभव, देवगढ़
इसके पूर्व मंवत् ९१९ का जो शिला-लम्ब यहाँ प्राप्त असंख्य द्रव्यके स्वामी बन गये थे। देवगढ़ का किला है उसमें इस स्थानका नाम लगिरि लिखा है। यह और मन्दिर उनके हो बनवाये हैं। ये देवपत और शिला-लेख एक जैन-मन्दिरके म्तंभ पर अंकित है। क्षेमपन कौन थे और कब हुए, इसका कुछ पता नहीं इमस प्रकट है कि कीर्तिवर्मनके मंत्री वत्सराजने इस चलता परन्तु इसमें संदेह नहीं कि बुन्देलखण्डके स्थानकां अपने अधिकारमें करके मम्भवतः निलेका इतिहासमे एक समय ऐसा अवश्य रहा जब जैनियों जीर्णोद्धार किया और अपने स्वामीके नाम पर उस का गहाँ काफी प्रभुत्व रहा होगा। कहा जाता है कि का नाम कीर्तिगिरि रक्खा। बादमें जैन-मंदिगेंकी नत्कालीन राजाको इस बातका पता चला कि देवपत अधिकता के कारण इस स्थानका नाम देवगढ़ पड़ा। और क्षेमपतके पास पारस पथरी है तो उसनं देवगढ़ __चंदेलोंके पूर्व यह स्थान किसके अधिकारमे था पर चढ़ाई कर दी और नगरको अपने अधिकारमें यह कहना कठिन है। आजसे लगभग तीस वर्ष पूर्व कर लिया। परन्तु उस पथरी नहीं मिली। भाइयोंने श्रीपूर्णचंद्र मुकर्जीने ललितपुर मब डिवीजनकी पुग- उसे बेतवाके गंभीर जलमें डुबो दिया। नत्त्व-विषयक खोज की थी। उसमें देवगढ़के प्राचीन जैन-मंदिगें तथा नाहग्घाटी और गजपाटीके म्मारकोंका विस्तृत विवरण है। माथमें १३ नकशे अतिरिक्त किलके दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर वागहजी
और चित्र भी हैं । इस प्रदेशमें किसका कब तक का एक प्राचीन मंदिर है। इसका अधिकांश भाग प्रभुत्व रहा, इसका विवरण उन्होंने अपनी रिपोर्ट में नष्ट हो चुका है। इमलिए इस मंदिरकी शैली एवं इम प्रकार दिया है:
निर्माण-काल के सम्बन्धम निश्चित रूपमें कुछ कहना शबर जाति-समयका पता नहीं।
कठिन है। फिर भी मंदिरके भवशिष्ट अंशको देख पाण्डव-ईसास ३००० वर्ष पूर्व ।
कर यह कहा जा सकता है कि नीचे मैदानमें बने हुए गौढ़-समय अज्ञात है।
गुम कालीन विष्णु-मदिरकी तरह ही इमकी बनावट गुप्त वंश-३०० से ६००ई।
रही होगी और मम्भवनः यह नमी समयमासदेव वंश-८५० से ९६९ ।
पासका बना हुआ है। मंदिरके पास ही वाराहजीकी चन्दल वंश-१०००-१२१० ।
विशाल मूर्ति पड़ी है, जिसकी एक टांग टूट गई है। मुसलमान-१२५०-१६००।
विष्णु-मंदिर किलेके नीचे बना हुआ है। भारतीय बुन्देल वंश-१६००-१८५७ ।
शिल्पकलाके प्रेमीजन इम मंदिरके नामसं ही देवगढ़ यह समय आनुमानिक है। श्रीपूर्णचंद्र बाबून को जानते हैं। इस मंदिरके ऊपरका अंश नष्ट हो इस अनुमानके प्रमाण अपनी रिपोर्ट में दिये हैं। चुका है । फिर भी शिखरके चिन्ह मौजूद हैं। गुम
परन्तु देवगढ़का नाम जैनियों के साथ विशेष रूप कालका एक मंदिर जो कि सांची में है, और अपनी से सम्बद्ध है। उनका यह एक तीर्थस्थान भी है। उन पूर्ण सुरक्षित अवस्थामें मौजूद है, बिना शिखरका की जनश्रुतिके अनुसार देवपन और क्षेमपत नामके ही बना है। इसलिए जनरल कनिधामका अनुमान भाई थे। उनके पास पारस मणि थी, जिससे वे देखिए झासी गजेटियर, पृष्ट ८८ और २५० ।