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भनेकान्त
[वर्ष ४
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तणुब्भ द सिरीहिं उपाणु
तं सुप्रणाण-देवि जगसारी जहुज्जल-मेरु-सिलाहिं सुवण्णु।
महु अबराह खमउ भडारी। सुलक्खण वेजण-तेय सउराणु
घत्ता-दयधम्मपवत्तण विमलमुकित्तणु णिरिक्खिवि चित्तु णःकासु सउरण
णिसुणतहो जिणइंदहु । महुच्छड वासु कियउ पुग्लोई
जं होइ सुधण्णउ हउ मणि मण्णउं ण भारह वरिणवि सख्कइ माई
तं सुह जगि हरिइंदहु ॥१७॥ मुणेवि दयापरु धम्महं धामु अभीयकुमार पपिरणामु
इति श्रीवर्द्धमानकाव्ये एकादशमः संधिः ।।
इस तरह इन दो प्रन्थोंका परिचय दिया गया है। नविदा बालर अहसकुमाल र अससि दिणदह
आशा है विद्वानगण इन प्रन्थोंकी और भी प्रतियों पियरहं साणंदर सिरिलयकंदउ कव्वु व कइ-हरि इंदह।। ॥ इय पंडिय-सिरि-जयमित्त-हल्ल-विग्इए वड
का पता लगायेंगे। माणकव्वं पयडिय-चवम(ग्ग) रस-भवे सेणिय
मेरा अनुभव अभयचरित्ते भवियण-गण मण-हरेण मंघडिव ।
मैंने उत्तरभारतके पचीस-तीस जैन भंडारोंका (वडि-बड) हो (ही लिवम्म-करणाऽऽहरणे संणियकहावयारो णंदसिरिविवाहसंगमा अभयकुमारजम्मु- अनुभव किया तो सभीकी हालत खराब पाई, न कछव-पण्णण णाम पढमा संधि-परिच्छेउ समत॥१॥ कहीं प्रन्थोंकी सूचियाँ पाई न नौंध ही-स्वाध्याय अन्तभाग- .
का प्रचार नहींके बराबर है। शास्त्रोंकी संभाल माल णंदउ देवराम-णंदण धर
भरमें एक बार भी नहीं की जाती । मालपुरा जिला हीलियम्मु कण्डवउ णयकर (?)।
जैपुरके भण्डार तो बहुत ही खराब मिले । किसी एहु चरित्त जेण विस्थाग्उि .
प्रन्थके दो पन्ने एक मन्दिर में तो १० पने दूसरे लहाविवि गुणिगण उवयारिउ ।।
मन्दिर में इस तरह प्रतियाँ स्खण्डित पड़ी हैं। बालहसाहु माहस महु णंदण
हमारे मन्दिरोंमें जहाँ सानेके काममें मुकगने और सजण-जण-मण-णयणा-र्णदण ॥ हाउ चिराउ सरिणय कुलमंडण
चीनीकी टायलोंमें समाजका पैसा पानीकी तरह मग्गहा-जण दुह रोह विहंडण
बहाया जाता है वहाँ शाखोंके लिये न योग्य वेष्टन है होउ संति सयलहं परिवारहँ
और न गत्ते ही । आपसी फूट तो समाजका गला भत्ति पबट्टउ गुरुवय धारहँ
ही घोटे जारही है। नहीं मालूम जैनोंमें कब विवेक पउमणदि मुणिणाह-गणिदहु ।
की जागृति होगी और वे जिनवाणीके प्रति अपना चरण सरण गुरु का हरिइंदहु जंहीणाघिउ कन्वु रसंसह
ठीक कर्तव्य पहिचानेंगे। पर विरइउ सम्मइ प्रवियदृहूँ