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जिनेन्द्रमुद्रा का दर्श
[ पं० दीपचन्द्र जैन, पारडया ]
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( १ )
लांचन लाली-वहिन शांत बतलात जीता तूने रोष दृष्टि कटाक्ष-रहित कहनी नहिं तुझमें काम विकृतिका दोष । मद-विषादको दई जलांजुलि -यों यह हँसती-सी अभिराम -; सौम्य मुग्वाकृति प्रकट बताती - शुद्धहृदय तू आतमराम || ( २ )
राग भावका नाश किया-यों पास न तेरे भूषण सार, है निर्दोष सहज सुन्दर तन—यों नहिं बस्त्रोंका शृंगार । द्वेष छोड़ तू बना अहिंसक निर्भय - यों न पास हथियार ; विविध वंदनाओंके क्षयसे सदा तृप्त तू बिन आहार || ( ३ ) मल-मूत्रादिकका न अशुचिपन सोहैं परिमित नख अरु केश भीनी चंदन-कमल- सुपरिमल महकत सारे देह प्रदेश । रवि शशि-वजन्यवादि सुहाने सहस अठोत्तर चिन्ह विशेष ; सूर्य-सहस्र-समान कांतिमय, तदपि नयन-प्रिय तेरा वेष ॥ ( ४ )
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राग - मोह - मिध्यात्व महारिपु हितका भान न होने देत इनके वश जगवासी भूले, मोह नींद में पड़े अचेत ! निरखें पलक खोल यदि तुमको क्षण में होवें शुद्ध सचेत ; योगि जनों के मन बसती छवि, तेरी किधों उदित शशि श्वेत ।। (५) बीता काल अनंन जगतमें भ्रमते मिला न सुखका लेश ; जिनवर ! तू सच्चा सुख पाया, यों तेरे पद नमत सुरेश । मिथ्या-मत पाखंडि - तिमिर से अंध बने जो पाते क्लेश ; यह जिनरूप ज्योति मनमें घर भविजन पार करो भवक्लेश ॥ १ चैत्यभक्ति 'ताम्रनयनोपलं' श्रादि पाँच पद्योका हिन्दी रूपान्तर ।
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