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प्रभाचंद्रका समय
किरण २ ]
है । यदि यही प्रभाचंद्र इसके रचयिता हैं, तां कहना होगा कि पभाचंद्रका समय ई० ९६५ के बाद ही होना चाहिए। यह टिप्पण उन्होंने न्यायकुमुद चंद्रकी रचना करके लिखा होगा । यदि यह टिप्पण पूसिद्ध तर्क ग्रंथकार भाचंद्रका न माना जाय तब भी इसकी शक्ति के श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें प्रमेय कमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के प्रशस्ति श्लोकों का एवं पुष्पिका लेखका पूरा पूरा अनुसरण किया गया है, पभाचंद्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्यकाल तक निश्चित करनेमें साधक तो हो ही सकते हैं।
८ - श्रीधर और प्रभाचंद्र की तुलना करते समय हम बना आए हैं कि पूभाचंद्र के ग्रंथों पर श्रीधर की कन्दली भी अपनी आभा दे रही है । श्रीधर ने कन्दली टीका ई० सन ९९१ में समाप्त की थी । श्रतः भाचंद्रकी पूर्वावधि ई० ९९० के करीब मानना और उनका कार्यकाल ई० १०२० के लगभग मानना संगत मालूम होता है ।
९ - श्रवणबेलगोलके लेख नं० ४० (६४) में एक पद्मनन्दिमैद्धान्तिकका उल्लेख है और इन्हींके शिष्य कुलभूषण के सधर्मा प्रभाचंद्र की शब्दाम्भोरुह भास्कर और पूतितर्कप्रन्थकार लिम्बा है
" श्रविद्ध कर्णादकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेवत्र तिताप्रसिद्धिः
सो ज्ञाननिधिस धीरः || १५ || तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधिः, सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभा
१ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पूस्तावना पृ० १२ ।
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चन्द्राख्यां मुनिराज पण्डितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः १६” इस लेख में वर्णित प्रभाचंद्र, शब्दाम्भोरुह भास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार विशेषणों के बलसं शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यास और प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचंद्र आदि प्रन्थों के कर्ता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही हैं। धवलाटीका पु० २ की प्रस्तावना में ताड़पत्रीय प्रतिका इतिहास बताते हुए प्रो० हीरालाल जीने इस शिलालेख मे वणित प्रभाचंद्र के समय पर सयुक्तिक ऐतिहासिक प्रकाश डाला है । उसका मारांश यह है – “उक्त शिलालेखमें कुलभूषण से
गेकी शिष्यपरम्परा इस प्रकार है - कुलभूषण के सिद्धांतवारांनिध, सद्वृत्त कुलचंद्र नामके शिष्य हुए। कुलचंद्र देव के शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंन कोल्लापुरमं नीर्थ स्थापन किया। इनके श्रावक शिष्य थे सामन्त केदार नारकस, सामन्त निम्बदव और सामंत कामदेव | माघनन्दिके शिष्य हुए - गण्डविमुक्त देव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य
कीर्ति और देवकीर्ति, आदि । इस शिलालेख में बताया है कि महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवने कालापुरकी रूपनारायण बसदिकं अधीन केल्लंगरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा जिननाथपुर मे एक दानशाला स्थापित की थी। उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनयके लिए महाप्रधान सर्वाधिकारी हिरिय भंडारी, अभिनवगंगदंडनायक श्री हुलराजने उनकी निपधा निर्माण कराई, तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान व पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की । देवकीर्तिक समय पर प्रकाश डालने वाला शिलालेख नं० ३६ है । इसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर श्राषाढ़ शुक्ल ९