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'अनेकान्त' पर लोकमत
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१४ बा० रतनलालजी जैन. बी०एस-सी०, बिजनौर- पामताप्रमाद जी का इलाशका गुफा लस्व पतकर प्रत्येक
हिन्दुस्तानीको दुम्ब होगा और जैनियों में तीब्राग लग जानी "अनेकान्त पत्रको मैं बड़ी श्रद्धासे देखता हूं । ऐसे
चारिये । श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र (श्री प्रेमी) हिमातत्व पत्रकी जैनसमाजमें बड़ी श्रावश्यकता है । जननीति वाला
(श्री ब्रह्मचारीजी), विवाह और माग समाज और तामिल लेख तथा उसकी नमवीर मझे बहुत हा पमन्द प्राई- उम
भाषाका जनसाहित्य श्रादि लेग्यों में भी विचारसामग्री है। उदाहग्गामे अनेकान्तको पड़ी भग्लनासे समझाया है । मैं वाहता है कि यदि मनीनिका दधिमन्यनवाला चित्र बहे
मुखपष्टवा चित्र जैनीनीतिका मम्पूर्ण प्रदर्शन है। श्राकारमं छुपकर मन्दिरीमें लग जाने ती बटा लाम समाज
इस वैज्ञानिक निर्देश के लिये श्री मन्नार साहब और निर्माण का होगा। यह नीनि मरलनामे ममम.में श्रा मकेगी।
के लिये चित्रकार श्री अाशागमजी शुक्ल प्रशंमाके पात्र हैं। मक अतिरिक्त निदामिक लेखांका भी बड़ा महत्व
में इस सुन्दर प्रयत्नके लिये सम्पादक महोदयको वधाई १५ श्री जैनेन्द्रकुमार जैन, देहली
देता है और विचारशील पाठकांम अनकान्त के प्रचारम
भागीदार होने की प्रार्थना भी करता है।" "जैनशास्त्र के विचार और गर्वपणाकी दिशाम १७५० समग्चन्द्र जैन न्यायतीर्थ. 'मिनी', देवबन्द'अनकान्त' ने अपना कर्तव्य देखा है । सम्पादनमें उस - कर्तव्यको ईमानदारीसे निबाहा जाता है। उसके लक्ष्यका "अनेकान्त श्रापके तत्वावधानमें जैनमाहित्यके प्रचार छाप हर अंक पर मिलती है। जन-मामान्य अर्थात जैन- का जो ठोम कार्य कर रहा है उसका मूल्य नहीं श्रोका जा सामान्यके यह और भी अधिक कामका दी. यह कामना।" मकना । इममें विचारात्मक और ममालोचनात्मक लेग्व १६ पं० कन्हेंयालाल मिश्र 'प्रभाकर', सहारनपुर
स्वच्छ, चमकीली और सर्वजनमुलभ भाषामें दिये जाने
हैं, जिन्हें प्रत्येक सरलतासे ममम. सकता है। अगर जैन"हिन्दीमें 'अनेकान्त' अपने ढंगका कला पत्र है-.
मादित्यके इतिहास पर तुलनात्मक विवेचनकर पाठकोंका वह पाठकोंकी हल्की प्रवृत्तियोका उपयोग करके अपना
ध्यान आकर्षित किया जाय तो लेखकों के लिये एक नवीन विस्तार चाहनेकी आजकी श्राम प्रवृत्तिसे बहुत दूर है। उसके सुयोग्य सम्पादक श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार
नेत्र मिल जायगा । सचमुच मुख्तार साहब हमारे साहित्यिक
उन्नायकोमें अग्रणी हैं, उन्हींके जागरुक प्रयत्नोंका यह फल उसके पृष्ठोम वही कहते हैं जो उन्हें कहना है, कहना चाहिये । मैंने सदा ही उनकी हम प्रवृनिका अभिनन्दन
है कि 'अनेकान्त' इतना मुन्दर निकलता है।" किया है।
१८५० लोकनाथजैन शास्त्री, मुडबिद्रीअनेकान्तका नववर्षा क अनेक सुन्दर लेखोंसे सुभूषित "श्रापके द्वारा सम्पादित 'अनेकान्त वर्ष ४ अंक' है। वीर-सेवा-मन्दिरके श्री परमानन्द शास्त्री इधर धीरे २ यथा ममय प्राप्त हुआ था। इसके मुखपृष्ठ पर स्याद्वादखोजपूर्ण लेखकोंकी श्रेणी में आकर बड़े होगये हैं। इम अनेकान्त नीतिका द्योतक सप्तभंगीनयका रंगीन चित्र बहुत अंकमें उनका महत्वपूर्ण, मौलिक स्थापनापूर्ण जो लेख- ही मनोहर एवं सुन्दर है। तुममें 'एकेनाकर्षन्ती' और तत्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज-छपा है, वह उसका मूल्य विधेयं वार्य चानुभयमभयं' इत्यादि श्लोकदयके अभिप्रायको श्रांकने में बहुत महत्वपूर्ण है । मैं उन्हें बधाई देते हुए मृर्तस्वरूप बनाकर आपने अपनी उच्च कल्पनाशक्तिका भानन्द अनुभव कर रहा हूं।
समाजके सामने परिचय कराया। यह कार्य अत्यन्त प्रशंसा ममन्तभद्र पर दोनों सम्पादकीय लेख सुन्दर है। श्री करने योग्य है । आपके सभी लेग्य पठनीय एवं माननीय है।