________________
महाकवि पुष्पदन्त
[ लम्बक-श्री पं० नाथूगम प्रेमी ]
[ इस महाकविका परिचय सबसे पहले मैंने शीर्षक लेख लिखकर बनलाया कि उक्त प्रतिके प्रव. अपने 'महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुगण तरण ग्रंथकं मूल अंश न होकर क्षिप्त अंश जान शीर्षक विस्तृत लेखमें दिया था ' । परन्तु उसमें कवि पड़ते हैं, वास्तवमे कविका ठीक ममय नवीं शताब्दी कं ममयपर काई विचार नहीं किया जा सका था। ही है। इसके बाद मन १५३१ में कारंजा जैनमीरीजउमकं थोड़े ही समय बाद अपभ्रंश भाषाके विशेषज्ञ में यशोधरचरित प्रकाशित हुआ और उसकी भूमिका प्रो० हीगलालजी जैननं 'महाकवि पुष्पदन्त के ममय में डा० पी० एल० वैद्यन काँधलाकी प्रनिक उक्त पर विचार' । शार्पक लग्ब लिखकर उस कमीका अंका और उमी प्रकार के अन्य दो अंशांको वि० पूरा कर दिया और महापुराण तथा यशोधरचरित सं० १३६५ में कण्हनन्दन गन्धर्वद्वारा ऊपग्स के अतिरिक्त कविकी तीसरी रचना नागकुमारचरित जाड़ा हुआ सिद्ध कर दिया और सब एक तरहस का भी परिचय दिया। फिर मन १५२६ में कविक उक्त समयसम्बन्धी विवाद समाप्त हो गया। इसके नीनों प्रन्याका परिचय ममय-निर्णयक साथ मध्य- बाद नागकुमारचरित और महापुगण भी प्रकाशित प्रान्तीय मरकार द्वाग प्रकाशित 'कंटलाग श्राफ हो गय" और उनकी भूमिकाओं में कवि सम्बन्ध मनु० इन सी० पी० एण्ड बरार' में प्रकाशित हुआ। की और भी बहुत सी ज्ञातव्य बातें प्रकट हुई । इसके बाद पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारका 'महाकवि मंक्षेपमं यही इस लेग्वकी पूर्वपीठिका है, जो इस पुष्पदन्तका ममय' शीर्षक लंग्व' प्रकट हुआ, विषयके विद्यार्थियोंके लिए उपयोगी ममम कर यहाँ जिममें काँधलाकं भंडारसे मिली हुई यशोधरचरित दे दी गई है। प्रत्युन लम्ब पूर्वोक्त मभी सामग्रीपर की एक प्रनिकं कुछ अवतरण देकर यह सिद्ध किया लक्ष्य रग्ब कर लिग्वा गया है और इधर जो बहुनसी गया कि उक्त काव्यकी रचना यागिनीपुर (दिल्ली) में नई नई बातें मालूम हुई हैं, वे सब शामिल कर दी वि० सं० १३६५ में हुई थी, अतएव पुष्पदन्त विक्रम गई हैं । कविकं स्थान, कुल, धर्म आदिपर बहुत की चौदहवीं शताब्दिके विद्वान हैं । इस पर प्र० सा नया प्रकाश डाला गया है । ऐमी भी अनेक बातें होगलाल जीन फिर 'महाकवि पुष्पदन्नका समय' . हैं जिन पर पहले के लेखकोंन कोई चर्चा नहीं की है। १ जैनमाहित्य-संशोधक खंड २ अंक १ (मन् । मैन इस बानका प्रयत्न किया है कि कविकं मम्बन्ध २ जैनसाहित्य-संशोधक खंड २ अंक २।
की मभी ज्ञानव्य बाने क्रमबद्ध रूपस हिन्दीके पाठकों ३ जैनजगत् १ अक्टूबर सन् १६२६ ।
५ महापुराणके दो खंड छप चुके हैं और अन्तिम तीसरा ४ जेनजगत् १ नवम्बर सन् १६२६ ।
खंड भी लगभग तैयार हो गया है।