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अनेकान्न
[वर्ष ४
इस परिचयस कविकी प्रकृति और उसकी नि- जब बोलते थे तो उनकी सफेद दन्तपंक्तिसं दिशाएँ मंगनाका हमारे सामने एक चित्र-मा विच जाना धवल हो जाती थीं । । यह उनकी स्पष्टवादिना है। एक बड़े भारी साम्राज्य महामंत्री द्वारा अति- और निरहंकारताका ही निदर्शन है, जो उन्होंने शय सम्मानिन होते हुए भी वे सर्वथा अकिंचन और अपनका कुरूप कहने में संकोच न किया। निर्लिप्त ही जान पड़ते हैं। नाममात्र गृहस्थ होकर पुष्पदन्नमें म्वाभिमान और विनयशीलताका एक नरहम व मुनि ही थे।
एक विचित्र सम्मेलन दीम्ब पड़ना है । एक बार तो एक जगह व भरत भहाम त्यम कहते हैं कि "मैं वं अपनका ऐमा महान कवि बनलाते हैं जिसकी धनका तिनककं समान गिनता हूं । स मैं नहीं लेना। बड़े बड़े विशाल ग्रंथों के ज्ञाता और मुहतसं कविता मैं तो केवल अकारण प्रेमका भूग्वा हूं और इसीसे करनेवाले भी बगवरी नहीं कर मकतं- । और तुम्हारं महल में रहता हूँ।" मग कविता तो जिन- सरस्वती देवीम कहते हैं कि अभिमानरत्ननिलय चरणों की भक्तिसं ही स्फुरायमान होती है, जीविका पुष्पदन्तकं पिना तुम कहाँ जाओगी-तुम्हारी क्या निर्वाहके म्बयालसे नहीं ।
दशा होंगी ? और दूसरी ओर कहते हैं कि मैं ___ इस तरहकी निप्पृहनामें ही स्वाभिमान टिक दर्शन, व्याकरण, सिद्धान्त, काव्य, अलंकार कुछ भी मकता है और ऐसे ही पुरुषको 'अभिमानमस' पद नहीं जानता, गर्भमूखे हूँ । न मुझमें बुद्धि है, न श्रतशोभा देता है । कविन एक दो जगह अपन पका मंग है, न किसीका बल है = । भी वर्णन कर दिया है, जिससे मालूम होता है कि भावुक ता सभी कवि होते है परन्तु पुष्पदन्त में उनका शरीर बहुत ही दुबला पतला और माँवला यह भावुकता और भी बढ़ी चढ़ी थी । इस भावुकता था। वे बिल्कुल कुरूप थे परन्तु मदा हँसते रहते थे गएणस्म पत्थणाए कवयिसल्लेन पहसियमहेण, णय
कुमारचरित रइयं सिरिपुष्फयंतेन ॥-णयकुमार च. भरहमण्णाणले गणिलएं,
रहसियतुडिकइणा खंडे ।
-यशोधर चरित कन्चपबंधजाणिय जणपुलएं ॥ २५ + मियदंतपतधवलीकयासु ना जंपइ बरवायाविलासु । पुफयंतकरणा धुयपंके,
xअाजन्म कवितारसैकधिषणा सौभाग्यभाजो गिरा, जह अहिमाणमेकणार्क ।
दृश्यन्ते कवयो विशालसकलग्रन्थानुगा बोधतः । कयउ कव्वु भत्तिए परमत्य,
किन्तु प्रौढ निरूढगूढमतिना श्रीपुष्पदंतेन भो, जिणपयपंकयम उलियहत्थे ॥ २६
मान्यं विभ्रनि नैव जातु कविना शीघ्र त्वत: प्राकृतेः ॥ कोहणसंवच्छरे श्रासाढए,
-६६ वी संधि दहमए दियहे चंदरुहरूढए ।
t लोके दुर्जनसंकुले हतकुले तृष्णावसे नीरसे, * धणु तणुसम माझुण तं गहणु,णेहु शिकारिमु इच्छामि।'
। सालंकारवचोविचारचतुरे लालित्यलीलाधरे । देवीसन सुदणिहि तेण हां, णिलए तुहारए अच्छामि ॥
__ भद्र देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ साम्प्रतं,
-२० उतर पु० कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदन्तं विना ।। xमामु कहत्तणु जिणपयभशिहे,
-८० वी संधि पसरह पहणियजीवियविन।-उ०१०
=णहु महु बुद्धिपरिग्गहु बहु सुयसंगहु उ कासुवि केरउ कसणसरीर सुद्धकुरूवें मुद्धाए विगम्भमभू। ११-उ.पु. बलु।
-उ०पु.