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अनेकान्त
हराया, यह कुछ नहीं लिखा। इसके विरुद्ध ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं जिनसे सिद्ध होता है कि ई० म० ९४४ ( श० ८६६) में लेकर कृष्ण के राज्यकाल के अन्त तक चोलमण्डल कृष्ण के ही अधिकार में रहा । तब उक्त लेखमें इतनी ही मचाई हो सकती है कि मन ९४४ के आस पास वीरचालको राष्ट्रकूटों के साथ की लड़ाई में अल्पकालिक सफलता मिल गई होगी । दक्षिण जिलेके मिद्धलिंगमादम स्थानके शिलालेख में जो कृष्ण तृतीय के ५ वें राज्यवर्षका है उसके द्वारा कांची और तंजोर के जीतनेका उल्लेख है और उत्तरी अर्काटकं शोलापुरम स्थानके ई० स० ९४९-५० श० सं० ८७१) शिलालेख में लिखा है कि उस साल उसने राजादित्यको मारकर तोडयि मंडल या चोलमण्डल में प्रवेश किया । यह राजादित्य पगन्तक या वोरचालका पुत्र था और चोलमैनाका सेनापति था । कृष्ण तृतीयकं बहनोई और सेनापति भूतुगने इसे इसके हाथी के हौदे पर आक्रमण करके माग था और इसके उपलक्षमे उसे वनवासी प्रदेश उपहार मिला था ।
[ वर्ष ४
हालकंरीके ई० म० ९६८ और ९६५ के शिलाले ग्वों में मारसिंह के दो सेनापतियों को 'उज्जयिनी भुजंग' पदको धारण करनेवाला बतलाया है। ये गुर्जग्राज और उज्जयिनी भुजंग पद स्पष्ट ही कृष्ण द्वारा सीयक गुजरात और मालवेके जीते जानेका संकेत करते हैं। सीयक उस समय तो दब गया, परन्तु ज्योंही पराक्रमी कृष्ण की मृत्यु हुई कि उसने पूरी तैयारी के साथ मान्यखेट पर धावा बोल दिया और खोट्टिगदेव को परास्त करके मान्यखेटको बुरी तरह लूटा और बरबाद किया ।
पांडयलच्छिनाममाला के कर्त्ता धनपालके कथनानुसार यह लूट वि० सं० २०२९ ( श० सं० ८९४ ) मं हुई और शायद इसी लड़ाईम खोट्टिगदेव मारे गये । क्योंकि इसी माल उत्कीए किया हुआ खरडाका शिलालेख' वाट्टिगदेव के उत्तराधिकारी कर्क (द्वितीय) का है ।
कृष्ण तृतीय ई० स० ९३९ ( श० सं० ८६१ ) के दिसम्बर के आस पास गद्दी पर बैठे होगे । क्योंकि इस वर्ष के दिसम्बर में इनके पिता बद्दिग जीवित थे और कोल्लगलुका शिलालेख फाल्गुन सुदी ६ शक
८८९ का है जिसमे लिखा है कि कृष्णकी मृत्यु हां गई और खांगदेव गद्दी पर बैठे। इससे उनका २८ वर्ष तक राज्य करना सिद्ध होता है, परन्तु किल्लूर (द० अर्काट) के वीरतनेश्वर मन्दिरका शिलालेख उनके राज्य के ३० वें वर्षका लिखा हुआ है ! विद्वानों का खयाल है कि ये राजकुमारावस्था में, अपने पिता के जीते जी ही राज्यका कार्य संभालने लगे थे, इमी सं शायद उस समय के दो वर्ष उक्त तीस वर्षकं राज्यकालमें जोड़ लिये गये होगे ।
ई० मन् ९१५ ( शक सं० ८१७) में राष्ट्रकूट इन्द्र (तृतीय) ने परमारराजा उपेन्द्र (कृष्ण) को जीता था और तबस कृष्ण तृतीय तक परमार राष्ट्रकूटोंके मांडलिक होकर रहे । उस समय गुजरात भी परमारोंके अधीन था ।
परमारों में सीयक या श्रीहर्ष राजा बहुत पराक्रमी था । इसने कृष्ण तृतीय के आधिपत्य के विरुद्ध सिर उठाया होगा, जान पड़ता है इसी कारण कृष्ण को उस पर चढ़ाई करनी पड़ी होगी और उसे जीता होगा । इस अनुमानकी पुष्टि श्रवणबेलगोलके मारसिंह के शिलालेखस" होती है जिसमें लिखा है कि उसने कृष्ण तृतीय के लिए उत्तरं य प्रान्त जीते और बदले में उसे 'गुर्जर राज' का खिताब मिला। इसी तरह १ मद्रास एपिग्राफिकल कलेक्शन १६०६ नं० ३७५ । २ ए०ई० जि५ पृ० १४५ । ३ ए०६० जि० १६ १०८३ । ४ लीडनका दानपत्र, श्राकिलाजिकल सर्वे ग्राफ साउथ
६ ए०ई० जि०११, नं० २३-३३
७ ए०ई०जि० १२०२६३ । ८मद्रास ए०म० १६१३ नं०२३६ इंडिया जि० ४, पृ० २०१५ ए०० जि०५ पृ०१७६ । ६ मद्रास एपिग्राफिक कलेक्शन सन् १६०२ नं० २३२ ।
राष्ट्रकूटों को और कृष्ण तृतीया यह परिचय कुछ विस्तृत इस लिए देना पड़ा जिसने पुष्पदन्तके ग्रंथों मे जिन जिन बातों का जिक्र है, वे ठीक तौर से समझ में आ जायें और समय निर्णय करनेमें भी सहासता मिले । (अगली किरण में समाप्त)