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महाकवि पुष्पदन्त
किरण ६-७ ]
कम नहीं जान पड़ती ।
वं सारी कलाओं और विद्याश्रमं कुशल थे, प्राकृत कत्रियोंकी रचनाश्रपर मुग्ध थे, उन्होंने रम्वनी सुरभिका दूध पिया था । लक्ष्मी उन्हें चाहती ।। सत्यप्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे। युद्धों बांझ ढाने ढाते उनके कन्धे घिस गये थे ।
बहुत ही मनोहर, कवियो के लिए कामधेनु, दीन दुखियोंकी आशा पूरी करनेवाले, चारों और प्रसिद्ध, पीपराङ्मुख, त्र, उन्नतमति और सुजनोक उद्धारक थे ।
उन रंग माँचला था, हाथी की सूंडके समान उनकी भुजायें थी, अङ्ग सुडौल थे. नेत्र सुन्दर थे और सदा प्रसन्नमुख रहते थे ।
वे
भरत बहुत ही उदार और ती थे | कविके शब्दों बलि, जीमूत, दधीचि आदिके स्वर्गगत हो जानें त्याग गुण श्रगत्या भरत मंत्रीमं ही आकर
बस गया था ।
एक सूक्ति में कहा है कि भरतके न तो गुणों की गिननी थी और न उनके शत्रुओं की । यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि इतने बड़े पदपर रहनेवाले, चाहे वह कितना ही गुण और भला हो, शत्रु ना हो ही जाते हैं।
प्र
ममकला कि कुमलु । पाकदकञ्चरमावद्ध संघीयम || कमलच्छु श्रमच्लुम मच्चसंधु, गाभरग्धरटुबंधु । इसमे भी मालूम होना है कि वे सेनापति रहे थे । २ मविलामविलामणदिणु, मुसिद्ध महाकर काम काडीपरिपुरिया, जमरमरयमाहियदमदमामु || परमणियम्मुहु सुद्धमीलु, उराग्यमः सुगरगुग्गालालु । ३ कोऽयं श्यामप्रधानः प्रववकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । श्यामरुचिनयनमुभगं लावण्यप्रायमङ्गमादाय | भरतच्छलेनमम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः || ४ बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वर्गतागतेषु | सम्प्रत्यनन्यगतिक स्त्यागगुण भरतमात्रमति ॥ ५ घनघवलनाश्वयाणामचलस्थितिकारिणा मुहुर्भ्रमनाम् । गणनैवनास्ति लोके भरनगुणानामरीणा च ॥
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इस समय के विचारशील लोग जिस तरह मन्दिर आदि बनवाना छाड़कर विद्योपासनाको आवश्यकता बतलाते हैं उसी तरह भव्यात्मा भरतने भी वापी, कूप, नाग और जैनमन्दिर बनवाना छोड़कर गह महापुराण बनवाया जो संमार समुद्रको आराम मे तर के लिए नावतुल्य हुआ । मला उसकी बन्दना करन को किसका हृदय नहीं चाहता ।
इस महाकविका श्रश्रय देकर और प्रेमपूर्ण श्र महसे महापुराण की रचना कराके सचमुच हा भरतन वह काम किया, जिससे कवके साथ उनकी भी कीर्ति चिरस्थायी हो गई। जैनमन्दिर और वापी, कूप नागादिना न जाने का नामशेष हो जाते ।
पुरन्त जैसे फक्कड़, निर्लोभ, निगमक्क और संसार उद्विद्म कवि महापुराण जैसा महान काव्य बनवा लेना भरतका ही काम था । इतना बड़ा आदमी एक किचनका इतना सत्कार इतनी खुशा मद करें और उसके साथ इतनी सहृदयताका व्यव हार करें, यह एक आश्चर्य ही है।
पुष्पदन्त की मित्र हान भरतका महल विद्या विनोदका स्थान बन गया । वहाँ निरन्तर पाठक पढ़ते थे, गाते थे और लेखक सुन्दर काव्य लिखते थे। गृहमन्त्री नन्न
ये भरत के पुत्र थे। ननको मह मात्य नहीं किंतु वल्लभ नरेन्द्रका गृहमन्त्री लिखा है । उनके विषय में कविने थोड़ा ही लिया है पर तु कुछ लिखा है. मालूम होता है कि वे भी अपने पिताकं सुयां६ वापीतडागजेनवसतीत्यक्त्वं यत्कारितं
श्रीभरत मुन्दया जैनं पुराणं महत् । तत्कृत्यालमुत्तमं रविकृति (?) संमारवाधः सुम्बं कोऽस्य ..........कस्य हृदयं तं वन्दितु नेहते ॥ ७ ६६ पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं
छह लिखितमजस्त्र लेखकैश्चारुकाव्यं । गतिवति कविमित्रे मित्रता पुष्पदन्ते भरत तत्र गृहेस्मिन्भाति विद्याविनोदः । कुडिल्लगुनदायरासु, वल्लहगारिदघर मध्यरामु । य००