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भनेकान्त
[ वर्ष ४
जा विभु है--वि-पक्षियोंसे भु-उत्पन्न है. श्रेयान्-कल्याण अलंकारसे अलंकृत होनेके कारण इम मामूली बत्ती रूप है तथा उच्चस्तरां--अत्यंत ऊँचे श्राकाशमै सुन्दर शोभा कई गुणी अधिक हो गई है। गमनको देता हुश्रा--विधा--श्रीकृष्ण के चित्तको हमेशा शातिनाथ तीर्थकरसे शातिकी प्रार्थना करते हुए श्रानंदित करता है वह विनतासुन-वैनतेय-गरुड़ तुम सब कविराज क्या लिग्वत हैं ? देखियेको भूतिका देने वाला दो।" ।
शान्ति म वः शान्तिजिनः कगेतु, यद्यपि जैनमिद्धांतके अनुमार गाडमे विभूति प्रातिकी विभ्राजमाना मृगलाञ्छनन इच्छा करना अमंगत मालूम होना है तथापि वर्णनकी मंगति शशीव विश्वप्रमदेकहेतु ज नेतर मान्यताओंके अनुमार हो सकती है। कवि लोग यः पापचक्रव्यथयां बभूव ।। १६ ।। अपने काव्योमें वही लिम्बते हैं जो कि कवि-मम्प्रदायमें-- वे शातिनाथ भगवान् तुम सबको शान करेंकाव्यजगत्में प्रसिद्ध होता है। धार्मिक मान्यतायांकी योर अशांति उत्पादक राग-दपको नए कर वीनगगभाव प्राम उनका विशेष लक्ष्य नहीं रहना ।
करने में मदायक हो-जो कि चंद्रमाकी तरह मृगरूप चिह्नमे विमलनाथका स्तवन लिम्बने हुए कविने लिखा है-- महित हैं, ममम्तमंमार के कल्याणकारा है और पामभदाय वन्दामहे पादमगेजयुग्ममन्नः कृपालोविमलस्य नम्य। को-- अशुभ कामों के ममृहको नए करने वाले हैं। (पक्षम) यश्चापपया कलिनाङ्गठितथापिपाश्रस्थितकालगजः पापी चक्रवाक पक्षीको दुःख देने वाले हैं--प्रेयमी-चक
"मैं उन दयालु विमलनाथ भगवान्के दोना चरण वाकाम वियुक्त कर दुःख पहुँचाने वाले हैं। कमलोकी बंदना करता हूँ जिनका शगर यद्यपि माठ धनुष जैन शाम्बीमे भगवान् शातिनाथके हरिणका चिन्ह से महित था तथापि उसके पाम शूकरराज विद्यमान माना गया है और चन्द्रमा मृगाङ्ग (हारगाइ) मृग-चन्द रहता था।"
- स सहित प्रमिद्ध है ही। जिस तरह चन्द्रमा बाल-वृद्ध-युवा यहाँ कविने विमलनाथ स्वामीको अंत: कृपालु--दया मभीको श्राहाद काका कारण हे उमी तरह भगवान शान्तिसे पूर्ण हृदयवाला बतलाया है उसका उत्तरार्धमें कितना नाथ भी समारगन जीवोको अाहाद के कारण थे; जिस तरह अच्छा विवरण किया है--भगवानका शरीर एक, दो, नहीं चन्द्रमा पापी चकवाको उनकी प्रिय चकवियोसे जुदा कर किंतु माठ धनुषोंसे सहित था-शिकार के पर्याप्त साधनोंसे दुखी करता है (क्यो कि रातम चकवा-चकाबयोका विरह सहित था और मारने योग्य शकर भी पाम ही विद्यमान हो जाता है) उमी तरह शान्तिनाथ भगवान् भी पापचक्र-- रहते थे फिर भी बे किसीकी शिकार नहीं करते थे । उनका पापोके ममदको व्यथित्--नष्ट करने वाले थे। इस प्रकार शरीर धनुषोसे महित होने पर भी इतना मौम्य-सुहावना बन इस श्लोकमे चन्द्रमा और शान्तिनाथम उपमान-उपमयचुका था कि शूकर श्रादि भीरु प्राणी भी उनके पाम, पाम भाव होनेसे उपमालंकार स्पष्ट हो जाता है । मृगलाञ्छन ही नहीं किन्तु शरीरसे संगत होकर भी भयका अनुभव और पापचक्रका श्रेष्टरूपक उमको भाग अवलम्बन नहीं करते थे।
पहुँचाना है। इस लोकका वर्णनीय वृत्त सिर्फ इतना है
अठारहवें तीर्थकर अरनाथका स्तवन करते हुए कविने 'मैं उन विमलनाथ स्वामीके चरणोंकी वंदना करता श्लेषानप्रीणित विरोधाभाम अलंकारका कितना सुन्दर हूं जिनका शरीर साठ धनुष ऊँचा था और शूकरके चित उदाहरण बनाया है । देखियेसे चिह्नित था। परंतु कविने उसे जिस रोचक ढंगसे अराय तम्मै विजितम्मराय, प्रकट किया है उसे देखते ही बनता है। सुन्दर अलंकार नित्यं नमः कर्मविमुक्तिहेनोः । धारण करने पर किसी अल्हड़-गौराग-प्रामीण युवतीके
यः श्रीसुमित्रातनयोऽपि भूत्वा, शरीरकी भाभा जिस तरह चौगुनी होजाती है उसी तरह रामानुरक्ता न बभूव चित्रम् ।। १८ ।।