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बनेकान्त
[वर्ष ४
का इशाग पाकर, युवगंज ठा, और उत्साह-भगे लथ-पथ जमीन पर ऐसे पड़ा है-जैसे जादृगग्ने नेज आवाजम बोला
जादूकं बलसे कलकर भीड़में डाल दिया हो। तसिंह या गीदई ? जो सामने खड़ी हुई शिकार खूनमें सने पंजे लेकर ब्रह्मगुलाल सभा-भवनस को देखकर भी चुप बड़ा है ! धिकार है ऐमी जिंदगी बाहर निकल गया। को, व्यर्थ ही मानान पैदाकर दुनियाँक सामने म्या!' कुहगम आकाश-भेदन लगा।
ब्रह्मगुलाल तिलमिला गया-मार क्षोमकं ! मग मभामें, मेरे इजलाम यह अपमान ? जिसने जीवन में आधी-बात किसीकी नहीं सुनी ' जो मदा प्रशंमाके नगर-भग्में श्मशान-उदासी ! न कहीं-माच रंग, वातावरणम खेलता-कूदना रहा ! क्या वह अपनी न उल्लास-विलास । माँकी, अपनी, और शेर जैमी वीर जातिकी बदनामी ब्रह्मगुलालकं अभिभावक कष्टमें पड़ गएसुनता रहे ? जिसकी कि ग्याल प्रादकर वह प्रतिनिधि सोचते-विचारते ही दिन बीतता।-'न जानें क्या बना खड़ा है।
हांगा ? वह नौजवान था। उसकी रग रगमे गर्म खून सब यही कहते-'बुग हुश्रा, बहुन बुग । इससे था, ग्वाभिमानकी मनुष्यंता थी ! और इतने पर भी ज्यादा और हाता भी क्या ? अकला बेटा था, राज्य वह बना हुमा था-जंगलका गजा, जो निडरता का उत्तराधिकारी। अपनी सानी नहीं रखता।
और ब्रह्मगुलालको भी कुछ कम पश्चाताप नहीं क्रोधमें भरा हुआ वह एक उछालमें युवराजके था. 'क्या होगा ?' इसका डर तो उसके दिलमें नहीं समीप जा पहुँचा । और तीक्ष्ण-नम्वोंकी एक थापसे था। लेकिन पीड़ा इसकी बहुन थी कि बेचारे राजजीते-जागते, बालते-चालते, गजकुमारका काम तमाम कमारका सर्वनाश उसके हाथों हा। इरादतन कर दिया।
कस्ल उसने नहीं किया, मारना अभीष्ट नहीं था। खूनकी धारा बह उठी ।...
पर, शायद उसे मरना था इसीके हाथ । भागया सा: गज-सभा, साग राज परिवार 'हाय !' कर क्रोध, फिर सँभाले न सँभला । और वही होकर रहा, उठा।
जो न होना चाहिए था-हरिज नहीं।. मार्तनाद !
दो, तीन दिन बीत गए।करुण-सदन !!
अन्तःपुरका रुदन कुछ होण हुआ ! महाराजके तीव्र-शोक !!!
आँसू कुछ थमे ! चिसमें थोड़ी रदता भाई ! पिछले पागल की तरह महागज चिल्लाये-'मेग बचा!' दिनों बड़े-बड़े विद्वानोंने असार-संमारकी व्याख्या और फिर बेहोश।
महागजको समझाई है। चोटखाये दिलोंने अपना हिरण होरीमे बंधा, विकलतास चक्कर काट गेमागेकर, महाराजकी पीडाको हल्का करनेका यत्न रहा है ! युवराजका पाहत, निर्जीव-शरीर खूनमें किया है। और महागजने स्वयं भी अपना कर्तव्य