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जीवन नैय्या
(ले० श्री आर० के०, आनन्दप्रकाश जैन 'विल' )
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( १ )
मेरे गुरु ने कहा था कि तेरी नौका टूटते ही तेरा जीवन मेरा हृदय प्राशासे प्रफुल्लित हो उठा, मुझे अब किनारा भी समाप्त हो जायगा । मिलेगा न! और थलका उपभोग भी तो मैं बीस के सामुद्रिक जीवन के उपरान्त करूंगा । शैशवावस्थासे किशोरायस्याका आभास जय माता है तो नई नवेली मधूकी भाँति केमल लगता ही है ।
बिना प्रयत्नके ही लहरोंके प्रभावने मुझे थल पर ला खड़ा किया। ( श्रायु क्या कुछ विचारती है ?) उत्तेजना में | कूद पड़ा कूदने में शीघ्रता हुई। हृदयमें एक धक्का-सा
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महसूम हुआ (पासनाका प्रबल वेग उत्पीडित होनेके प्रथम हृदय धड़कता है) और मैं किनारे पर मदहोश सा लुक पड़ा ! भावावेश के समय कुछ मान नहीं होता। ऐसा ही मैं था । यौवनावस्थाके सूर्यसमान तापका अनुभव करता मैं कितनी ही देर तक थलकी उष्ण देह पर बेसुधमा हुश्रा पड़ा रहा। जल, थलका अनुभव कहाँ था ?
( २ )
और जगनेके पश्चात् एक नई उत्तेजना मैंने अनुभव की। निपट स्वप्नकी भाँति, भावनाओंकी तरंगोंमें बता उतराता एक युवती अङ्कका स्पर्श था ओ हृदयमें सदन उत्पन्न कर रहा था ये सब भावनाओं के ही तो मेल है।
मुझे बच्चों की तरहसे थपक थपक कर सुला रही थी । जाने क्यों ? ( अ जानता हूँ स्नेहावेशमें नहीं)। और तब भी मैं पचा नहीं था। बीस वर्ष शेषनागरकी वायुका 暂 उपभोग कर चुका था और यह भी उमी सागरका किनारा था, किन्तु वास्तवमें क्या मैं मनसे भी किशोर था ?
पलकें ऊपरको उठा कर मैंने देखा कि एक नवेली सी धरने में मेरा सिर रक्से मेरी ओर देख कर मंद मंद मुसका रही थी। लोसे भी अधिक कोमल कपोलों पर
उस समय मेरी अवस्था २० वर्षकी थी। नई आशाएँ, उमंगें हृदयमें स्थान ले रही थीं। शीतल समीर के इलनचलन का अनुभव में बड़ी व्याकुलतासे करता था। ठंडे ears कोरे मनको एक नई सी वस्तु प्रदान करते थे । उस समय मेरा मन किसी आाधारको टूटने में व्यस्त था।
और मैं चला रहा था एक नौका में नदीकी उत्ताल तरंगों से टकराता हुआ ! छोटी छोटी लहरें मेरी नावसे टकरा कर अपना परिचय दे रही थीं। मुझे मालूम भी नहीं हो या कि कब मेरी सुव्यवस्थित नौका लाखनी हुई एक नये वायुमण्डल में नये वातावरण में धानेका मुझे भान उद्गम स्थान रिक्त नहीं था ।
नदी, नाले और समुद्र प्रवेश कर गई ! एक हुआ। आशाओंका
मगर मेरी नाव तो अभी थपेड़े खानेमे रुकती नहीं ! मेरे श्राकुल प्राण छटपटाने लगे ! मोह ! ये लहरें क्या कभी समाप्त नहीं होगी ? मेरी नाव क्या कभी थलका मुख नहीं देखेगी! इस समुद्रका क्या कभी अन्न नहीं होगा ? परन्तु मुझे मालूम नहीं था कि अभी तो समुद्र बहुत विस्तीर्ण है, अथाह है ! अभी लहरें भी तो मंख्यानीत है ! अभी तो मेरे प्राण भी अपनी पूरी उत्तेजनासे नहीं छटपटाये ! फिर मैं किनारेका अनुभव करनेका अधिकारी कैसे हूँ ?
योहीं यह 'जीवन नैय्या' चलती रही। भाव रूपी तरंगों से हलके-भारी थपेड़े खाती हुई !
यकायक एक परिवर्तन हुआ और मैंने पहले पहल लकी शुष्क किन्तु मीठी, हृदयमोहिनी वायुका सेवन किया।