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किरण ६-७]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
मार नामक विण्यात पांचालु देशमें सम्बद्ध है। इस देशके वहां मुनिजम्माचार्यको हटाने की माशासे नीलकेशीने अनेक अधिपति महाराज समुद्रसार थे और उनकी राजधानी थी प्रकारकी भयावह परिस्थितियां उत्पनी, किन्तु मुनिराजको पुण्डबर्धन । इस नगरके बाहर एक श्मशान भूमि है जिसे बराने के सकस उपाय विफल हुए। वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो पखलेयम् कहते हैं। वहां कालीका एक प्रसिद्ध मन्दिर है। सरलतासे अलग किये जा सकें। वे अपने ध्यानमें बताके उस मन्दिरके समीप मुनिचंद्र नामके योगी विद्यमान हैं। साथ निमग्न थे और कितनी ही भयानक समीपवर्ती परिएक दिन कुछ नागरिक थोड़े पशु और पसी कालीको चढ़ाने स्थितियां उनके शांत और गंभीर ध्यान में बाधा नहीं पहुंचा के लिये वहां साथ ले पाये। जैन- प्राचार्य ने इस विचित्र सकती थीं। वे अपने कार्य में इस प्रकार निमग्न थे, मानों बलिदानका कारण उन लोगोंसे पूछा: उन लोगोंने कहा कि उनके पासपास कुछ हुआ ही नहीं, तबमीखकेशीने सोचा ये पशु-पक्षी कालीके भागे वलि दिये जायगें क्योंकि काली कि साधुको उचित प्रथवा अनुचित उपायोंसे जीतनेका एक के प्रसादसे महारानीको एक बच्चेकी प्राप्ति हुई है। जैन ही मार्ग है और वह यह है कि वे अपनी माध्यामिक प्राचार्य ने उन लोगोंसे कहा कि "अगर तुम पशु और साधनासे डिगाए जाय और उनका ध्यान वैषयिक सुखोंकी पतियोंकी मृतिकामे बनी हुई मूर्तियोंको कालीके मन्दिरमें ओर आकर्षित किया जाय-उसने सोचा कि उन मुनिराज बढ़ानोगे तो देवी पूर्णतया सन्तुष्ट होगी। यह विधान की तपश्चर्याको बिगानका यह निश्चित मार्ग है। इस बात कालीको सन्तुष्ट करने और तुम्हारी प्रतिज्ञाओंको पूर्ण करने को दृष्टिमें रख कर उमने उस प्रदेशकी राजकम्पकाकी सुन्दर के लिये पर्याप्त होगा। इसके मिवाय बहुतसं प्राणी मृत्यु के मुद्रा बनाकर योगिराजके समक्ष अपनी गारचेष्टाएँ भारमुखम बच जायगे तुम भी अपने आपको हिसाक पापसे म्भ करदीं। साधुको अपनी ओर आकर्षित करने लिय बचा सकोगे । इस उपदेशका लोगों पर बहुत अच्छा प्रसर उसने वेश्या जैसी वृत्ति प्रारम्भ करदी। उसका यह प्रयत्न पड़ा। अतः वे अपने सब पशुओंको अपने अपने घर वापिस भी असफल रहा। इतने में मुनिचन्द्राचार्य ने उसे स्वयं सब ले गये । लोगोंके इस व्यवहारसे कालीदेवी अन्यन्त क्रुद्ध वास्तविक बातें मुनादी। उन्होंने उसे बताया कि "तू यथार्थ होगई। उसने यह अनुभव किया कि मैं गैन मुनिकी उस में राजपरिवारकी राजकुमारी नहीं है, किन्तु देवताओंकी प्राध्यामिक निपुणताके कारण उनको भयभीत करने में स्वामिनी और मुझे डराकर इस स्थानसं अलग करना असमर्थ थी। किन्तु अब उसने यह चाहा कि उन मुनिश्री चाहती है ताकि पशुओंका बलिदान निरन्तर चालू हो जाय को काली मन्दिरके प्रहातेमे बाहर भगा ताकि वे नित्य इम स्पष्ट भाषणसं योगीकी महत्ता और बुद्धिमत्ता उस पर होने वाले यहांक यज्ञमें वाधा न डाले । अतः वह दक्षिण अंकित हो गई और उसने उनके समर यह स्वीकार किया देशकी अपनी सरदारनी नील केशीकी खोज में निकली जिस कि जो कुछ मापने कहा वह सत्य है पाप मेरा अपराध के सामने जैन मुनिके द्वारा काली मन्दिरकी नित्यकी पूजा जमा कीजिये। अब मुनिराज उसे समा प्रदान कर चुके तब तथा बलिमें डाली जानेवाली बाधा-विषयक शिकायत कृतज्ञतावश उसने भविष्य में विशेष कल्याणकारी और रक्खी गई। महान नीलकेशीने इम जैन मुनिमे पिण्ड छुहाने पवित्र जीवन बितामेकी इच्छा प्रकट की। उसने उनसे कहा और दवर्धन नगरमें काली मन्दिरकी पूजा तथा वलिदान "मुझे अहिंसाके मूल सिद्धान्तोंका शिक्षण देनेकी कृपा को बराबर जारी करने के लिये उत्तरकी मोर प्रस्थान किया। कीजिये" जब उसने अहिंसा धर्म पवित्र सिद्धान्तोंको सुना,