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किरण ६-७]
निश्चय और व्यवहार
हाना बाय (द्रव्य) चारित्र, और मन (मामा) का विषयासक्त होकर, अव्रत (पाप) रूप प्रवृत्ति करते हैं वे गगादि कषायोंस निवृत्त होना आभ्यंतर (भाव) जीव मानों जीवन रक्षण हेतु स्वास्थ्यपद कड़वी चारित्र है। बाह्य चारित्र होने पर प्राभ्यंतर चारित्र औषधिको त्यागकर प्राणनाशक मीठा इलाहल पान होता ही है ऐसा नियम तो नहीं है। किन्तु प्राभ्यंतर करते हैं। चारित्र होने पर बाह्य चारित्र अवश्य होता है. यह श्रीअमृत चन्दाचार्यने इस विषयमे समयसारके नियम है।
कलशमें अच्छा कहा हैजिस तरह केवल बाह्य चारित्रको ही मोक्षका यत्र प्रतिक्रमणमेव विष प्रणीत, कारण मानना मिथ्या है, उसी तरह उस मवथा तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । कारण न मानना भी मिथ्या है।
तत्किं प्रमाति जनः प्रयतमधोषः, __ अवतसम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहोदयके वश उप किं नोर्ध्वमूर्य मधिराहति निष्प्रमावः ।। रितन गुणस्थान चदनकी प्रशक्तिक कारण अशुभसे
अर्थान-जहाँ प्रतिकमण (दोषों का शुद्धिरूप रक्षा करने तथा शुद्धापयांग रूप ध्ययकी प्राप्तिकं लिये
'पुण्य') को भी विष' कहा है, वहाँ अतिक्रमण शक्ति मंचय करनका साधन समझ, अपद जानता
(सदोषावस्थारूप 'पाप') 'अमृत' कैसे हो सकता है। हुश्रा भी, शुभमें ठहर जाता है। किन्तु उमकं प्राशय
अतः हे भाई! प्रमादी होकर नीचे नीचे क्यों गिरता में उपदेयता नहीं। अतः शुभाचार सर्वथा मिथ्या
है ? निष्प्रमादी हाकर ऊँचा ऊँचा क्यों नही चढ़ता ? नहीं, उम उपादेय मानना मिथ्या है।
इमी विषयका श्री पं० भागचन्दजीन अपने एक धान्य पैदा करन लिय खेत जोतना, कचग
या निकालना, खाद्य और पानी देना, बाड़ लगाना आदि
परिगति सब जीवनकी तीन भांनि बरना। मच बाह्य माधन है। किन्तु अंकर बीजमें ही उत्पन्न
एक पुण्य, एक पाप, एक गगहरनी ॥शा टेक।। होगा. इन माधनोंमें नहीं। नो भी इन माधनों के बिना-कोठीम रक्खे हुए धान्यसं ही अंकुगत्पति तामे शुभ अशुभ पन्ध, दाय करें कर्म बन्ध । नही हो मकती।
वीतराग परिणनि ही भवसमुद्र-तरनी ॥२॥ पलाल होकर धान्य न भी हो. किन्तु धान्य बिना
जावत शुद्धापयोग, पावत माहीं मनांग। पलालकं नहीं होगा। उमी तरह बिना शुभोपयोग
नावत ही कही, करन जोग पुण्य करनी ॥३॥ शुद्धोपयांग होना भी असंभव है।
त्याग सब क्रिया कलाप, कग मत कदाच पाप । श्रीअकलंकदवन म्वरूपमम्बोधनमें रत्नत्रयका
शुभम मत मगन हां, न शुद्धता बिसग्नी ॥४॥ म्वरूप वर्णन करने के बाद कहा है
ऊँच ऊँच दशा धार, चित प्रमादको विडार । नंदनन्मूलहेतोः म्याकारणं सहकारकम् ।
ऊँचली दशा ते मत गिग अधो धरणी ॥५॥ तद्वाह्य देशकालादि तपश्च बहिरङ्गकम् ।।
भागचन्द्र या प्रकार, जीव लहैं सुम्बनपार । अर्थान-मोक्षका मल कारण त्नत्रय और मह
या निरधार म्याद वादकी उचरनी॥६॥ का कारण बाह्य देश-कालादि या बाह्य तप ममझने लिखनका आशय यही है कि शुभाचारका नव चाहिये । अतएव विना उगदान और निमित्त दानों तक अवश्य ही पालन करते रहना चाहिये, जब तक कारणों के कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती।
कि निश्चय नयकं अनुसार वह धर्मरूप अवस्था __ जो अज्ञ मानव व्रत-श ल संयमादि शुभोपयोग सिद्ध न होजाय जा माध्यत्मिक ग्रन्थों में बतलाई (पुण्य) रूप व्यवहार धर्मको प्रशुभकी तरह बन्धज- गई है। नक सर्वथ हेय ममझते हुए, संत्यागकर बच्छाचारी