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अनेकान्त
[वर्ष।
'गोम्मट' हागान का यह एक प्रामान और अनिवार्य निक भारतीय भाषाओंके क्षेत्रमें। यदि उनका तरीका मार्ग है।" इत्यादि ।
. अखतियार किया जाये तो कोई शब्द किसी रूपमें 'प्राकृन मंजरी' 'वररुचि' के (जिन्हें कुछ विद्वानों बदला जा सकता है । मिस्टर पे द्वारा अंगीकृत न्याय के मतानुमार 'कात्यायन' भी कहा जाता है) सूत्रों पर का पेडियों पर चलका, मैं यह दिखला सकता है कि पिछली टीका है इसलिये इम टीकाको 'कात्यायन' 'कुक्कुट' का भी समीकरण 'गोम्मट' या 'गुम्मट' के की बताना ग़लत है। मिस्टर पै एक दूसरे सूत्र माथ किया जा सकता है। जब संस्कृत शब्द 'मन्मथे वः' २-३६' को चुपचाप नजर अन्दाज कर कन्नडमें लिये जाते हैं, तो आदिका :क' अकसर 'ग' जाते हैं। जिसके अनुमार 'मन्मथ' 'शब्दमें आदिका में बदल जाता है, उदाहरणके तौर पर कुटि =गुडि, 'म' 'वः' में बदल जाता है। नीचे लिखे कारणोंस कोटे = गाडे आदि (शब्द-मणि-दर्पण २५६)। प्राकृत टीकामें दिया हुआ 'गम्मह' पाठ स्पष्टनया ग़लन वा में 'क' 'म' में बदल जाता है: चन्द्रिका शब्दमें (प्राकृतग़लत छपा हुआ है:-(i) सूत्र ३-४२ में 'म' का मजगै २-५); इमी नरह एक डबल 'क' 'म्म' मे बदलना लिग्या है आदिक 'म' की तब्दीलीम इसका बदला जा मकना है । कन्नडमे कभी कभी '' स्वर कोई वाम्ना नहीं; (iiश्रादिकं 'म्' की 'व' मे 'अ' में बदला जाता है; कुस्तुम्बुरु = कात्तम्बरि (श० तब्दीलीका उल्लेग्व ग्यास तौरस सूत्र २-३६ में किया म० २८७), मानुष्यं = मानसं (श० म०२७३) । इम. है; (iii) और अन्तम, जैमा' कि प्रा० कुन्दनगग्न प्रकार 'कुक्कुट' 'गुम्मट' में बदल गया है। मिस्टर पै प्रकट किया है. गम्मकप तो इन्हीं सत्रों पर इम विधान पर आपत्ति नहीं कर सकते क्योंकि किसी दूसरे टीकाकार द्वाग और न किसी प्राकृत-व्या- उन्होंने स्वयं इसे अंगीकार किया है । परन्तु यह सब करण वा शब्दकाप द्वाग ही नोट किया गया है। स्वरविद्या ( ध्वनिशाल) का मजाक उड़ाना और 'मन्मथ' के लिये ग्राम प्राकृत शब्द 'वम्मह' है। जब शब्दशास्त्रीय परिकल्पनाकी फिसलने वाली भूमि पर तक यह साबित नहीं किया जाता कि 'मन्मथ' =
पागलोंकी नाह दौड़ लगाना है । अतः मिस्टर पै का 'गम्मह' यह ममीकरण युक्तियुक्त है, तबतक उमकं 'मन्मथ = गम्मह यह ममीकरण जरा भी साबित पीछेकी मब बहमें (arguments) बेकार हैं। नहीं है। दूसरे 'श्रद्धा', 'प्रन्थि' आदिकी ममानताएँ कोई भी (२) यदि मिस्टर 'पै' 'बाहुबलि' = 'कामदेव' = अमली ममानतानएँ ही है, क्योंकि वे मूर्धन्य नियमकी मन्मथ'>गास्मट' इस समीकरणको लेकर जो कि तरह स्वरविद्याके नियमोंके आधीन हैं जिनका ऊपरक कथनानुसार है सावित नहीं है, प्रस्थान करते 'मन्मथ' शब्द पर कोई असर नहीं है। उनकी दलील हैं तो यह कहना कि मूर्ति ई० सन् ९८५ या ९९३ तक विधिके अनुसार भले ही ठीक दिखाई पड़े, परन्तु गोम्मटेश्वर' नहीं कहलाई जा सकती थी, अपना ही यह मब चनशील शब्दव्यत्पनि-विद्या है, मेरे ख्याल विरोध अपने आप करना है । 'बाहुबलि' काक्री 'में मिस्टर पै तुलनात्मक तर्कणाओंके अन्धकूपोंसे प्राचीन,समय से कामदेव' प्रसिद्ध हैं । अतः या तो बिलकुल अनभिज्ञ हैं, खामकर प्राकृतों और आधु- मिस्टर पे' को यह समीकरण छोड़ देना चाहिये