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अनेकान्त
[ वर्ष ४
पृ॰ ३६ नरचंद्र • ज्यातिषमारके का भी पृ० ३९ शाकटायन यापनीय संघके थे । शांति श्वेही हैं।
मूरि श्वे० संभव है। प्र० पद्मप्रभसूरिका ग्रहभावप्रकाश पंथ भी श्वे०है। १०३ जिनहर्ष स्वरतरगच्छके थे । श्रेणिक
पृ० ३७ पाश्वेनागकी प्रास्मानुशासन टीका श्व० चरित्र उनका अभी श्वेताम्बर भडारोंमें नो देखने में ही प्रतीत होती है, जॉचकर लिम्बना चाहये।
नहीं पाया, अनः भक्त प्रन्थको देखना आवश्यक है । पृ० ३८ प्रागप्रियमाव्य रचायना मनमिह
०४० में नारायण श्रमालका तो श्वे. लिम्या चनाम्बाथ।
पृ० ३५. नामदन काव्य का विक्रम कवि भी व थे।
इमी प्रकार अन्य अशुद्धियाँ जिन्हें जिन्हें विदिन पृ० ३९. कातंत्र का शवेशर्मा जैनना । हाव वे सूचित करदें । प्रमीजीम अनुगंध है कि * यह विषय अभी विवादामद है। -संपादक व इम देक्टका और ग्वाज-शाधकं माथ प्रकट करें।
अपना घर
जहाँ बमन मना रहता है, पतझड़ कभी न पाना । 'दुम्ब' गना निज अधपतन पर, सुग्व रहता मुम्काता" माम्यवादको जहां पूर्णता, विमल प्रेमका नाना ! छोटे बड़े बगबर है मध, क्या श्रीता, व्याख्याता !!
जहाँ नहीं कटुता जीवनम, नही, वामना-स्याहा ! जहाँ न दीनोंका क्रन्दन, धनिकांकी नादिरशाही !! जहाँ न प्रभुका भजन, नही पेमाना और सुगही ।
नहाँ बिगाड़ • सुधार नहीं है, जहाँ न भावा • जाही !! नहीं किसी की साहूकारी, जहाँ नहीं प्रासामी ! सब अपनी तबियतकं गजा, सब अपनेके स्वामी !! जहाँ न योगी, संन्यासी, यो लोभी, क्रोधी, कामी ! आजादीने जहाँ तोड़कर रखदी, घोर - गुलामी !!
जहाँ न अपनी-अपनी घातें, जहाँ न काई व्याकुल ! जहाँ भाचिकर काग नहीं हैं, जह। न प्यारी बुलबुल !! जहाँ न बैर-विरोध किसीमें, जहाँ न रहते मिल-जुल !
एक अलौकिकताको लेकर, रहते सभी निराकुल !! मंग अपना-घर' तो वह है, यहाँ कौन है मेरा ? म्खुल जाएगी श्रॉम्ब नभी, ममदूंगा हुमा सवेरा !! चलदंगा तब अपने घरको, सजकर रैन-बमरा । जिसमाज तक अपना मममा, उखड़ेगा वह डेग!
श्री भगवन जैन