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भनेकान्त
[वर्ष ४
है कि राजा भारमल्लके अमंगलार्थ किन्हींने कोई षड्यन्त्र लिये भाप बहुत धन्यबादके पात्र हैं। अब ज़रूरत इस बात किया हो और उसके फलस्वरूप उन्हें विधि (देव) के अथवा की है कि ग्रंथकी दो तीन प्रतियां और मिल जाये, जिससे बादशाह अकबरके द्वारा देशनिर्वासनादिका ऐसा दण्ड मिला ग्रन्थका अच्छा तुलनात्मक सम्पादन होसके और उसमें कोई हो जिससे वे नगर, देश, लक्ष्मी और भूमिसे परिभष्ट हुए अशुद्धियां न रह सकें। इसके लिये अनेकान्तकी तीसरी अन्तको नष्ट होगये हो । अस्तु ।
किरण में एक विज्ञप्ति भी निकाली गई थी, परन्तु खेद है अब इस प्रकार यह कविराजमहलके 'पिंगल', ग्रन्थकी 'उपलब्ध
तक कहींके भी किसी सजनने इस बातकी सूचना नहीं दी प्रति' और 'राजाभारमल्ल' का संक्षिप्त परिचय है। मैं चाहता
कि यह ग्रन्थ उनके यहांके शास्त्रभंडारमें मौजूद है ! इस था कि प्रथमें पाए हुए छंदीका कुछ लक्षण-परिचय भी
प्रकारकी उपेक्षा और लापर्वाही ग्रन्थोंके उद्धारकार्य में बड़ी ही पाठकों के सामने तुलनाके साथ रक्ख: परन्तु यह देखकर कि
बाधक एवं हानिकर होती है ! इस छोड़ देना चाहिये । इस पूरे ग्रन्थको ही अब अनेकान्तमें निकाल देनेका विचार
आशा है दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही साहित्य प्रेमी हो रहा है, उस इच्छाको संवरण किया जाता है।
सज्जन अब शीघ्र ही अपने अपने यहांके भंडारों में इस पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस लेखमाला
ग्रंथकी तलाश करेंगे, और ग्रंथप्रतिके उपलब्ध हो जाने पर के प्रथम लेखको पढ़कर पं.बेचरदासजी.न्याय-व्याकरणातीर्थ
उसे डाक-रजिष्टरीसे मेरे पास (सम्पादक 'अनेकान्त' को) अहमदाबादने, जोकि जैनममाजके एक बहुत बड़े विद्वान हैं,
वीरसेवामन्दिरके पते पर भेजनेकी कृपा करेंगे। ऐसा होने लर हैं और संस्कृत-प्राकत-पाली प्रालि अनेक पर यह ग्रंथ जल्दी ही मुद्रित होकर उनकी संवामें पहुंच भाषाओंके पंडित हैं, इस ग्रन्थका सम्पादन कर देनेके लिय जायगा और उनकी ग्रंथप्रति भी काम हो जाने पर उन्हें पत्रद्वारा अपना उत्साह व्यक्त किया है और इस नई चीजके सुरक्षित रूपमें वापिस करदी जायगी। सम्पादनार्थ अनेकान्तको अपनी सेवाएँ अर्पण की हैं, जिसके वीरमेवामन्दिर, मरमावा, ता० २३-५-१९४१ चंचल मन
चल रे मन ! चंचल, अविरल चल ! तू अनन्त तक दौड़ लगाता, जहाँ न कोई भी जा पाता, चैन न तू पाता पलभर को, द्रुतगति से चलना ही जाता।
प्रबल-पवन, नभ नक्षत्रोंस, प्रगतिशील तू रहता प्रतिपल ! भटक रहा क्यों, भाग रहा क्यों, चपल, निरन्तर जाग रहा क्यों? उगल अँगारं-भाग रहा क्यों, शान्ति-मलिलकोत्याग रहा क्यों ?
हृदय-उदधिमें रहकर भी तू; सीब न पाया रहना निश्चल ! कब तक यों चलता जाएगा। चलता-चलता थक जाएगा! चल-चलकी इस हलचल में ही, सहसा काल कुटिल खाएगा !
हाथ न तेरे कुछ आएगा, रह जाएगा मलता, कर-तल ! यदि चलना ही लक्ष्य एक है, आगे बढ़ना ही विवेक है ! तो फिर, चल कुछ सोच-समझकर, जिसपर चलना सदा नेक है !
कर प्रयास जितना हो तुझसे, जान अरे ! तू क्यों है चंचल ? म्वगुणाम्बर में दौड़ लगाले, चंचलताकी भूख मिटाले !
सश्चित शिव-सुन्दर-स्वरूपमय निज विकासकी ज्योति जगाले! पं.काशीरामशर्मा 'प्रफुल्लित'
मद्रावोंके उज्ज्वल पथ पर, इस जीवनको भरसक ले चल !