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अनेकान्त
[ वर्ष ४
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प्राप्त होता है ।
जन्मनक्षत्र उत्तगपाटामें मक्तिको प्राप्त हुए हैं । मक्तिकी भगवान ऋषभदेव एक हज़ार वर्ष कम एक लाख प्राप्तिके ममय दुग्बमा-सुखमा नामक चतुर्थकालके प्रविष्ट पूर्व वर्ष तक अर्हन्त या जीवन्मुक्तरूप केवली अवस्थामें होनेमें तीन वर्ष मा अाठमाम बाकी थे-अथग यो कहिये रहे-इतने समय तक जगतके जीवोको अापके उपदेशका कि सम्वमा-दरखमा नामके तीमरे कालकी समाप्निमें तीन वर्ष लाभ मिलता रहा। अन्तम अष्टापद (कैलाश) पर्वतके शिखर साढे अाठ माम बाकी रहे थे। पर ग्रारूढ़ होकर और १४ दिन पहले योग निरोध करके श्राप माघ कृष्णा चतुर्दशीके दिन पूर्वाग्रहके ममय अपने
वीर सेवामन्दिर, सरसावा, ता०३१-५-१९४१ • पीऊम-णिज्झरिणहं जिणचंदवाणि,
पुवारण एक्कलक्खं वामागां गादं महमण | माऊण बारसगगणागि अकारएसु ।
उमहजिणिद कहियं कंवलिनालम्म परिम.गणं ।।५४१।। गिच्चं अांतगुणमणिविमोहिअग्गा,
उमहो चाहम दिवस, ....... ॥१००८ ।।
माघम्स किगिह चाहमि पुव्वगहे गिणय य जम्मण कवचे छदंति कम्पपडलि खु अमंग्वमणि ॥ ९३८ ।। एवप्पभावा भरहम्म व धम्मप्पवनी परम दिसंता। अट्ठावयंमि उमहा अजुदेण ममं गाजोमि ॥११ ४॥ मव जिणिदा वरभवसंघम्स पास्थिदं माक्ख सुहाइ देतु उन्महाजणे णिव्याणे वासता अट्ठमाममामद्धे ।
॥ ५५ ॥ बालीगगमि पविट्टा दुम्ममसुममो तुरगकाला ।।१२७३।।
जीवन-नैय्या
जीर्ण-शीर्ण-सी जीवन- नैया,
दुर्गम - पथ अालोक - विहीन ! गुरुतर झमा के झोकों में, .
होने को हो रही विलीन !"
मन विडम्बनायों में बेसुध
भूल रहा है अपना ध्येय ! नही सोच सकता क्षणभर भी
उपादेय क्या, क्या है हेय !
दम्भ-द्वेष का भार इधर है,
उधर उदधि में भीषण ज्वार ! हाथ पांव फूले केवट के
कैसे होगी परलीपार !!
अतिजघन्य अगणित इच्छाएँ
खीच रही हैं अपनी ओर ! पता नहीं है किस गह्वर मे--
अटकादें जीवन की डोर !
साथ न सच्चा साथी कोई,
इस अवसर पर एक सहाराअपना और न कुछ भी पास !
मुझे आपका हे भगवान! निरी वासना-मयी इन्द्रियां
पार संघादेगा नैय्या को, नहीं दिग्याती प्रात्म-प्रकाश!!
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करदेगा निश्चित कल्याण !! श्री 'कुसुम' जैन