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किरण,५]
समसामह-विचारमाला
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यदि, अमन में रखामाइनसमुण्मा और मुखो ठीक नहीं कहा जा सका।..
. पादनास पापका बध ध्रुव-निश्चितकाम होता । इन प्राशियोमश्वयमे श्राविक कारगी जो लोग ह.एमा एकान्त माना जाय, तो फिर बीतरमा क्यान- दामी एकातों को अंगीकार करते है परन्तु योद्वादक सहित) और विद्वान मुनिजन भी, पुराम-पापस बॅधन ..सिद्धान्तका नही मानने-अपना-श्रमपेक्षाकी बीबहियां क्योंकि अभी अपने सुख-इसका कि कार नही कर+प्रथया' चायकान्तको अवही निमिस कारन हात है।..... P न संका गयाफापीडियवस्थाको अवमय होमवाबीनसार और, विद्वाना सुनके विक्रान तान हैं पनकी मान्यता विरोधामोमयकात्म्य योगादिक अमुष्ठानद्वाग कायक्लेशादिरूप धुवकी स्याद्वानम्बाचिद्विपाम। अवाकयतकान्न म्युक्तिना
और तत्वज्ञान जन्य मंसाणम क्षणाप सुबकी मस्तान वामिति युज्यने ।। इस कारिका (नं०५४) के द्वारा हाता है । जथ अपनम दुख-सुम्बक मत्सदन हा विरोधादि द
स्वामी मनात पुण्य पाप.धना हैनो फिर याप्रकार व पुण्य पापक बन्धनम कैम मुक्त रह सकते है ? यदि इनके
स्वपथ मुग्वदुःखादिका दृष्टि में पुगयपाएकी - जा
'सम्यक व्यवस्था अहेन्मतानुमार बनलाई है जमकी भी पुण्य-पापका ध्रक कन्ध होता है तो फिर पुगन-माप
निपादक 'कारिका-इम पकार है :कं.अभावका की अमर नहीं मिल सकता और न , कोई मुक्त होनक सभ्य हो सकता है--पुराय-पापरूप विशुद्धि-संक्तशाचेत् स्वपरस्थं सुम्बासु। दोनों बन्धोक अभावके बिना मुक्ति होती ही नहीं। पुण्य-पापासवोयुक्तोन चेद व्यर्थस्तवाहतः॥
और मुक्ति बिमा यम्भादिककी भी कोई समस्या . इसग बतलाया है कि- अहनके मनमें स्थिर नही रह सकती; जैमाक' उपर बसलाया जा सग्य-दुण्य प्रात्मय हो या परम्थ-अपनेका हो चुका है। यदि पुराय-पापक प्रभाव बिना भी मुक्ति पा सरकारबह यदि विशुद्धिका अंगमा उम मानी जयगी सामंमृतिक-संसार अथवा मोमा पुरयायका, मंक्लेशका अंजामीनपापसवको रिक जीवनक-अभावका प्रमंग आएगा, जा गय-संत है जो यमन है-मार्थक, action अथवा पापको व्यवस्था मानने वालामस किमीको भी इन बचकर है-और या विशुद्धि तथा मंक्लेश दानो नहीं है। ऐमी हालनमे श्रास्मसुम्नदुःखके द्वारा पाप- ममे, किमीका अंग नहीं है मा पुगयपाप में किमीक पुग्यक बन्धन का यह एकान्स सिद्धान्त भी सदोष है। भी युक्त प्रावका-बन्धयवस्थापक म पगयिक । यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अपन, दुःख- मानवका हेतु नहीं है-बन्धा-भावके कारण, सुखकी उत्पत्ति हानपर भी तत्त्वज्ञान वीतामियाक बाद व्यर्थ हाना है-ममका का फल नहीं। पुण्य-पाका बन्ध इम लिया जाना कि उनके । यहाँ सक्लेश' का अभिप्राय आन-गैद्रध्यान के दुख-सुस्त्र के अपादनका अभिप्राय न होना, वेमी परिणामसे है-"श्रान-औद्रध्यानपरिणामः संक्लेश काइ इच्छा नहीं होनी और न म्म विषयमे सक्ति मा प्रकानकदेवन अशी टीका स्पष्ट लिया है ही द्वातं हे. वाफिर इसम तो अनकान्त मिद्रानाकी और श्रीविद्यामिदन भी सहमी' में अपनायाँ ही सिद्धि होती है वक्त एकान्तकी नई एमर्थात है। 'मंक्लश' शान के माथ नपरूपमें प्रयुक्त होने यह नतीजा निकलता है कि, अभिमासको लिये हुए के कारण विशुद्धि' शब्द का अभिप्राय “मक्लेशाऽभाव' दुख सुखका उत्पादन पुगय पापका हेतु है, अधिक्षय- है। "मदभावः विशुद्धिः" इत्य कलंक:)-एम नायिक विहीन दुव-सुखका पादन पुण्य मात्रा हेतु सही है। लक्षमा नया अधिनम्वर्ग परमविशुद्धि का अभिप्राय
अतः उक्त दोनों पकान्त सिद्धान्त प्रमाणम नही है. जो निरवशष गदिक अभावरूप हातीबाधिन हैं, उनके भी किङ पड़न हैं, और इमलिया इस विशुद्धिमण्य पापबन्ध लिये कोई स्थान
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