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किरण ४ ]
वीरसेन थोड़े हँसभर दिए सिर्फ !
'ठहरिये न चार छः दिन और ?'
अयोध्याका राजा
'आपकी ही सेवा में हूं, वहांका काम काज भी तो मनुष्य के मनकी पहिचान नहीं ।' देखना ही है ।'
क्या सचमुच धोखा खाया गया ?
क्या उसने ठीक कहा था ? क्या मैंने गलती की ?
चारों ओर से जैसे आवाज आई 'हां !' वीरसेन अबाकू !
और तभी चल दिए - बग़ैर कुछ सोचे समझेअयोध्या की ओर ! हृदय पर आधान जो हुआ था । अनायास बज प्रहार, वह उसे सँभालने में असमर्थ हो रहे थे ।
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'ज़रूर ! हां. तो ऐसा कीजिए-आप चले जायें, लेकिन गनी जी अभी यहीं रहेंगी। बात यह है, रानी जीके लिए कुछ नाम तौरपर आभूषण बनवाए गए हैं— उनमें है अभी दे। जैसे ही बनकर आए नहीं कि हम उन्हें स-सन्मान विदा कर देंगे ।
वीरसेन
चुप I
'चिन्ना न कीजिए— उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होने पाएगी। आप बेफिक्री के साथ जा सकते हैं । ' - महाराज मधुन स्पष्ट किया ।
'अहँ ! आपके यहां तकलीफ ? मुझे चिन्ता क्या ? तो मैं जा रहा हूँ — इन्हें चार छः दिन बाद भेज दीजिएगा ।' - और श्रद्धा मस्तक झुकाते. हाथ जोड़ते हुए वीरसेन लौटे। चन्द्राभाने संकेत किया, पास पहुँचे। बोले—'डरकी कोई बात नहीं। हीरका लंकार बनने में थोड़ा विलम्ब है, बनकर आ जाएँगे, दो चार दिनमें । तब आ जाना। कुछ कष्ट नहीं हागा-यहां ।'
चन्द्राभा गं दी ! जानें कब कबके आंसू रुके पड़े थे ! बोली- 'स्वामी धोखा खाकर भी तुम्हें ज्ञान नही आता । तुम्हें मनुष्य होकर भी मनुष्यकं मनकी पहिचान नहीं ।'
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तो वीरसेन के मन में कुछ शक पैदा हुआ। रह रहकर उनके कानों में गूँजने लगा - 'तुम्हें मनुष्य होकर भी
वीरसेन फिर तने !
'फिर वही बात ? महाराज मधु ऐसे नहीं, जैमा तुम खयाल करती हो । वे एक बड़े राजा है।'
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X X X आठ दस दिन बीत गए। जब चन्द्राभा न लौटी
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X अयोध्यावासियांने देखा - एक पगला, मलिनवेष, मरणमूर्ति अयोध्याकी गलियोंमें चक्कर काट रहा है। चिल्ला चिल्लाकर कहता है- 'मैं वटपुरका राजा हूं। मेरी रानी चन्द्राभाको अयोध्याकं गजा मधुन मुझसे छीनकर अपनी पटरानी बना लिया है। कोई मेरा न्याय नहीं करता ?
बच्चों मनोरञ्जन होता ! बूढ़े समझदार कहते - 'बेचारा ठीक कहता है ।' और कुछ मनचले पगले को छेड़ते, चिढ़ाने, चन्द्राभाकी बातें पूछते । वह जहां बैठना घंटों बैठा रहता ! पागल जां ठहरा, मुसीबत का मारा !
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महारानी चन्द्राभा अयोध्याकं भव्य प्रासादकी खुली छत पर सो रही थी, कि उनकी नींद उचट गई । एक करुण पुकारने उन्हें तिलमिला दिया । पुकार हृदय के भीतरी हिम्सेसे निकल रही थी
'हाय ! चन्द्राभा
?'
वह पढ़ी न रह सकी ! वातायन खोलकर झाँका