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२ श्रजीव - जो जानने देखनेकी शक्ति से रहित हो । ३ आस्रव - मन-वचन-कायकी क्रियाद्वारा जो आत्मा में कम श्रगमनके द्वाररूप हो । ४ बन्ध-आस्रव-द्वार से आये हुए कर्मपरमाणुओंका आत्मा के साथ मिल जाना । ५ संबर - नवीन कर्मपरमाणु का प्रवेश
अनेकान्त
क
जाना ।
६ निर्जग - पहले कं स्थित कर्मपरमाणुओं का तपस्या atres द्वारा एकदेश नाश हो जाना । ७ मोक्ष - श्रात्मा और कर्मपरमाणुओं का हमेशा के लिये अलग अलग हो जाना । मुख्यमें जीव अजीव यही दो तत्त्व हैं, शेष तत्त्व इन्हीं संयोग से होते हैं। हम यह पहले लिम्व श्रयं हैं कि जैन लोग सुख दुःखका दाता ईश्वरका न मान कर कर्मको मानते हैं क्योंकि ईश्वर वादियोंके सामने जब यह प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि ईश्वर पक्षपात से रहित होने पर भी किसीको धनी किसीको निर्धन किमीको दुःखी और किसीको सुम्वीको क्यों बनाता है ? तब अन्तमें उन्हें भी कर्म की शरण लेनी पड़ती है । वे भी कहने लगते हैं कि जो जैसा कर्म करता है ईश्वर उसे वैसा ही फल देता है।
[ वर्ष ४
वगैरह से दूर कर देना 'निर्जरा' और इन सबके बाद आत्मा और कर्मका अलग अलग हो जाना 'मोक्ष' हुआ । मानवशरीर और रंगके परमाणु ये दो स्वतन्त्र पदार्थ हैं। ये दोनों जिस कारण से मिलेंगे वह रोगपरमाणुओं का आस्रव होगा, रोगपरमाणुओं का मानव शरीर में मिल जाना उनका बन्ध होगा, नवीन कारणोंका न होना संवर होगा, पहले के मिले हुए रोगपरमाणुओं का औषधि प्रयोगसे अलग होना निर्जग होगी, और इसके बाद मानव शरीर से जब रोगपरमाणु सर्वथा अलग हो जायेंगे तब मानव शरीर रोग उन्मुक्त हो जावेगा, यह हुआ रोग परमाणुओं का मोक्ष। यही हाल आत्मा और कर्म परमाणुओं के विषय में समझना चाहिये । मोक्षाभिलाषी जीवको ऊपर लिखे हुए सात तत्वोंके सचे स्वरूपका श्रद्धान करना आवश्यक है ।
यद्यपि सम्यग्दर्शन के लक्षणों में ऊपर लिखे हुए तीन प्रकारोंमे स्वरूप भेद जाहिर होता है परन्तु विचार करने पर उनमें अर्थ भेद नही होता। सभी एक दूसरेके सहयोगी हो जाते हैं।
सम्यग्दर्शके आठ अङ्ग
जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में दो हाथ दो पांव नितम्ब पृष्ठ, वक्षःस्थल और शिर ये आठ अङ्ग होते हैं और इनमें कमी होने पर मनुष्यके व्यवहारमें पूर्णतःकी कमी रहती हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी आठ अङ्ग होते हैं जिनमें न्यूनता होने से सम्यग्दर्शन में भी न्यूनताका अनुभव होने लगता है। आठ
ये हैं - १ निःशङ्कित २ निःकांक्षित ३ निर्विचिकित्सा ४ अमूदृष्टि ५ उपगूहन या उपबृहण ६ स्थितिकरण ७ वात्सल्य और ८ प्रभावना ।
निःशङ्कत - जिन विषयोंका निर्णय प्रत्यक्ष प्रमाण
कर्म एक प्रकारका सूक्ष्म अचेतन पदार्थ है, जो आत्मा में राग द्वेष होने से उसके साथ बंध जाता है और बाद में वही आत्मा ज्ञान दर्शन आदि गुणोंको ककर उसके सांसारिक सुख दुःखका कारण हो जाता है। तो, आत्मा और कर्मरूप अजीव पदार्थ इन दो पदार्थों के मिलने का जो कारण है वह 'आस्रव' ' हुआ मिल जाना 'बन्ध' हुआ, आस्रवका न होना अर्थात् नवीन कर्मोंका न आ सकना 'संवर' हुआ, पहले आये हुए कर्मपरमाणुओं का तपस्या