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अनेकान्त
श्रद्धानं परमार्थनामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूडापोडमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ 'यथार्थ ( मच्चे) देव, शास्त्र और गुरुओं का आठ अङ्ग सहित तीन मूढ़ता और आठ मद रहित श्रद्धान करना - विश्वास करना - सम्यग्दर्शन कहलाता है।'
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यथार्थ देव शुद्ध स्वरूपकी प्राप्त कर चुके हैं, इस लिये व लक्ष्य हैं। जैसा स्वरूप उनका है वैसा ही मेरा है, इसलिये उनका श्रद्धान करना आवश्यक यथार्थ शास्त्रां शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान होता है, इसलिये उनका श्रद्धान करना आव श्यक है । और यथार्थ गुरु उस शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करानेवाले उपायोंको कार्यरूपमें परिणत करते है इसलिये उनका श्रद्धान करना भी आवश्यक 1 यथार्थ देव
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गना, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता हा वही सचा देव है उसका नाम वीर, बुद्ध, हरि, हर, ब्रह्मा, पीर, पैगम्बर कुछ भी रहो। जिस देवमें उक्त तीन गुण हों उसे जैनशास्त्रोंमें अर्हत्, अरहन्त जिनेन्द्र, प्राप्त आदि नामोंस व्यवहृत किया गया है
जो वानराग हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हा यथार्थ-मचा देव है। जिसकी आत्मास रागद्वेष क्षुधा तृषा-चिन्ता आदि १८ दोष दूर हो चुके हों उसे 'वीतराग' कहते हैं। जो संसारके सत्र पदार्थोंका एक साथ स्पष्ट जानना है उसे 'सर्वज्ञ' कहते हैं और जो सबके हित उपदेश देवे उसे 'हितोपदेशी' कहते हैं। हितोपदेशी बनने के लिये वीतराग और सर्वज्ञ होना अत्यन्त आवश्यक है । असत्य अहितकर उपदेशमें मुख्य दो कारण हैं एक कषाय अर्थात् राग-द्वेष का होना और दूसरा अज्ञान । मनुष्य जिम प्रकार कषायकं वश हो कर पक्षपात में असत्य कथन करने लगता है उसी प्रकार अज्ञानसे भी अन्यथा कथन करने लगता है, इसलिये हितोपदेशी बनने के लिये देवको वीतराग और सर्वज्ञ होना अत्यन्त आवश्यक माना गया है। जैनसम्प्रदाय में यह स्पष्ट शब्दों में कहा जाता है कि जिसमें बीतग
अर्हत अवस्था जीवकी जीवन्मुक्त अवस्था है, इससे आगे की अवस्था मुक्त-सिद्ध अवस्था कहलाती है । अर्हन्त अवस्था में शरीरका सम्बन्ध रहने से हितोपदेश दिया जा सकता है परन्तु सिद्ध अवस्थाम शरीरका अभाव हो जानमे हितोपदेश नहीं दिया जा सकता । वहाँ सिर्फ ोतराग और सर्वज्ञ अवस्था रहती है। इन्हींको 'ईश्वर' कहते है ये व्यक्ति-विशेष की अपेक्षा अनेक हैं और सामान्य जातिकी अपेक्षा एक हैं । प्रयत्न करने पर हमारे और आपके बीच में में प्रत्येक भव्य प्रारणी यथार्थ देवकी अवस्था प्राप्त
सकता है। जैनियोंका यह ईश्वर सर्वथा कृतकृत्य और स्वरूपमें लीन रहता है। जैनी सृष्टिके रचयिता ईश्वरका नहीं मानते और नहीं यह मानते कि कोई एक ईश्वर पाप-पुण्यका फल देने वाला है। जीव अपने किये हुए अच्छे बुरे कर्मोक फलको स्वयं ही प्राप्त होता है । देवगति में रहने वाले भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक भी देव व हलाते हैं परन्तु इस प्रकरणमे उनका प्रहरण नहीं होता और न जैन सिद्धान्त उनको पृज्य ही मानता है यथार्थ शास्त्र
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जो शास्त्र सथे देवके द्वारा कहे गये हों, जिनकी युक्तियाँ अकाट्य हों, जिनमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी प्रमाणसं बाधा नहीं आती हो और जां लोक कल्याण की दृष्टिसं रचित हों उन्हें 'यथार्थ शास्त्र' कहते हैं। शास्त्र सच्चे देवकं वे उपदेशमय वचन हैं