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भनेकान्त
[वर्ष ४
पाला भी मिल सकता है, कहिए ? 'एँ ! बिल्कुल भर गया ?
हा! कभी का! न्यू-थियेटर्सका चित्र-पट हैन ? 'क्या, स्टार्ट हो गया ? 'अभी नहीं ! होने ही वाला है !'
सोचने लगा- 'क्या देखा जाता है- उनसे- क्या मन"?? ___ 'पानी..! पानी....!! पाह! पानी!!! हे, भगवान् ! मेरी सुध""लो...! कोई""मुझेपानी....!'
मैं ठिठककर रुक गया !
देखा तो-वही परिचित भिखारी, यंत्रणाओंसे घिरा हुना, तड़प रहा है! मेरे हृदयने एक साथ गाया--
'बाया, मनकी राखें खोल !'
'तो...! लाइए, देखता ही जाऊँ!'-अठमी जेबमें डालकर, एक रुपया और एस की उनकी चोर बढाई उन्होंने रुपया तस्ते पर मारा, और बोले'मिहरवान् ! दूसरा दीजिए !'
'क्यों ? क्या खराब है साहब, यह रुपया ?' 'भाप बहस क्यों करते हैं, दूसरा दे दीजिए न ?'
भाखिर रुपया बदलना पड़ा, खराब न होते हुए भी! और तब मैं टिकिट लेकर भीतर जा सका !
मैंने ग्लानिको दूर हटाकर, उसके मुंह परसे कपड़ा हटाया। देखा तो चौंककर पीछे हट गया!
मन जाने कैसा होने लगा!
'मोह ! बेचारा प्यासा ही सो गया, और ""हाय ! सदाके लिये...!'
मोठ खुले हुए थे--हाथ फैले हुए ! शायद मौन-भाषा में कह रहा था-'एक पैसके चने खाकर पानी पी लुंगा-- बाबूजी !'
जी मैं पाया--इसकी खुली हथेलियों में कुछ रख दूं!
पर, हृदयमें आन्दोलन चल रहा था-एक पैसा देकर इसकी जान न बच्चाई गई-वहां अठारह-भाने"!
वाहरे, मनुष्य !
रातको लौटा तो ग्यारह बज रहे थे ! सिनेमा-गृहसे निकलने वाला जन-समूह समुद्र की तरह उमड़ रहा था! उसीमें कोई गा रहाथा-बाबा. मनकी चाखें खोल !'
गाने वाला इस प्रयत्नमें था कि अभी देखे हुए खेलमें गाने वालेकी तरह गाले ! मगर...१--फिर भी वह गा रहा था। और अपनी समममें-बड़ा सुन्दर !
मैं भी गुनगुनाने लगा--'बाबा, मनकी राखें खोल !' 'य! यह मनकी आखें क्या होती हैं-भाई?--
रह-रह कर यह लाइन मनके भीतर उतरती चली गई.'बाबा, मनकी आँखें खोल!!