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किरण ४ ]
मैंने उसके अनेकवार दर्शन किये। वह प्राचीन होते हुए भी इतनी सुन्दर है कि नई मालूम देती है । कारीगरीकी दृष्टिसे भी बड़ी विचित्र है। उस मूर्तिकी नकल करनेके लिये बड़े बड़े वैज्ञानिक कारीगरोंने प्रयत्न किया पर उसकी नकल न कर सके । श्रतः आप समझ सकते हैं कि वह कितनी मूल्यवान होगी । जर्मन वाले उसे संसारका एक आश्चर्य समझते हैं। नेपोलियन बोनापार्टने जर्मन और फ्रांस के युद्ध मे
मूर्तिको पेरिसमे लाकर रक्खा था।
कुछ वर्षों बाद जर्मनीन मूर्तिको वापिस लाने के लिये युद्ध द्वारा फ्रांस वालोंको पराजित कर उसे फिर सन १७७९ मे बर्लिन के मुग्वद्वार पर लगाया। इस मूर्ति के लिए लड़ाई लाखों मनुष्यों का संहार हुआ । पर उन्होंने अपने पूर्वजों की प्राचीन वस्तुको प्राप्त करने में अपने आपको कुरबान कर दिया। महायुद्ध के बाद जर्मनी अमेरिकाका कर्जदार होगया । ऋण इतना था कि अगर जर्मनी करोड़ो पौंड प्रति वर्ष देता रहे तो भी उसे उऋण होनेमे १५० वर्षके करीब लग जाएँ । अमेरिकाने जर्मनीमे कहा- अगर तुम हमें वह सूर्य की मूर्ति देदो तो हम तुम्हे इतने बड़े कर्ज से मुक्त कर सकते हैं । पर स्वाधीनता प्रेमी जर्मनोंन जोरस उत्तर दिया- जब तक हम आठ करोड़ जर्मनी मे से एक भी इस संसार मे जिन्दा है, तब तक उस मूर्तिको कोई नहीं ले सकता। देखिये, उनके हृदयों मे अपनी प्राचीन वस्तुकं लिए कितने उच्च भाव भरं है ।
आ० श्रीजिनविजयका भाषण
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हम लोग अपने साहित्य के लिए जग भी ध्यान नहीं दे रहे है। उसके उद्धार के लिये कौड़ी भी खर्चन को तैयार नहीं । उन पाश्चात्य विद्याप्रेमियो को देखिये, जिन्होंने हमारे एक एक ग्रन्थको प्रकाशित करनेके लिये हजारों रुपये पानीकी तरह बहा दिये। जिनको हमारे ग्रन्थोंमे कोई सम्बन्ध नहीं, न वे हमारे जैन धर्मको या भारतीय धर्मका मानने वाले हैं, न हम रे कोई देशके ही हैं और न हमारे कोई रिश्तेदार ही हैं। तो फिर अपना स्वार्थ न होते हुए भी उन्होंने इतना धन क्यों व्यय किया ?
लिए या नामके लिए। उन्होंने नामके लिए नही वर्चा वरन् सची साहित्य-सेवा करनेके लिए वर्षा है। डा० हरमन जैकोबीको देखिये - उसने जैनधर्म के लिए क्या कुछ कर दिखाया ? यही क्यो एक दूसरा उदाहरण लीजिये, अमेरिकाके सुप्रसिद्ध विद्वान डा० नार्मन ब्राउनने एक कल्पसूत्रकी खोजके लिए श्रमरिका सरकारसे दस हजार डालर खर्चकं प्रबन्धकी दरख्वास्त की, सरकारने उसे मंजूर किया । यह कल्पसूत्र १९३४ ई० में बाशिंगटन में प्रकाशित हुआ है।
डा: ब्राउन कई वर्ष पूर्व भारत में आये थे, उन्होंन पाटण आदि अनेक स्थानोंके ज्ञानभण्डारोंके कल्पसूत्र ग्रंथोंका निरीक्षण किया । फोटो आदि के लिए मेरेसे भी दो-तीन बार मुलाकात की। हमारा समाज भी धनसम्पन्न । वह चाहे तो सब कुछ कर सकना है । मैं आशा करता हूं कि हमारा सोया हुआ समाज भी अपने प्राचीन साहित्यके उद्धारका बीड़ा अ शीघ्र ही उठाएगा। कहनेका आशय यह है कि एक जैनों के कल्पसूत्र के लिए अमेरिका सरकाने ४० हजार रुपये खर्च किये और डा० ब्राउनने कितना परिश्रम उठाया। उनकी तुलना मे हम क्या कर रहे हैं ? दुसरा उदाहरण भारतका ही लीजिये । अकेले महाभारत के प्रकाशन के लिए भांडारकार इंस्टिट्यूने १५ लाख व्यय कर दिये हैं और १५ लाख रुपये और व्यय होंगे । अगर हम उनके मुकाबले आधा भी व्यय करनेको प्रस्तुत हों, तो हम भी बहुत कार्य कर सकते हैं।
अभी हाल ही पाटामे ६० हजार रुपयोंती लागनका एक सुरक्षित भवन एक ही व्यक्तिनं बनवाया है। उसमें पारण के सभी भंडारोंके प्रन्थोंका रग्वनेका प्रबन्ध किया गया है। कई भंडारोंके ग्रन्थ तो उसमें आ चुके हैं। यह काम अभी चालू । उन ग्रंथोंके लिए अलमारियो आदिकी व्यवस्था करने के लिए ३० हजार रुपये लग जायेंगे। आपको भी उसका अनुकरण करना चाहिये ।
लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती है। वह आज है कल नहीं। जो कुछ कार्य सम्पन्न अवस्था में हो जाता है
हम जो थोड़ा भी खर्च करते हैं - अपने स्वार्थकं वही उसकी चिरस्मृतिके लिए रह जाता है। गरीब