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किरण ४]
हरिभद्र-सरि
भिनाभन काटियाका ममता बतलाक
योग, शास्त्रयोग, एवं सामर्थ्ययोग नाम प्रदान कर को ही 'योग' कहा है। इस धर्म व्यापार रूप योगके भूमिकाके रूपमें बोधगम्य वर्णन किया है। अन्तमें ५भंद किये हैं। जैसा कि ऊपर लिग्या जाचुका है। चार प्रकारकं योगियोंका वर्णन करते हुए यह भी यों ना ये पांचों भेद श्रावक और साधु अर्थात् देशलिम्वा है कि योगशास्त्रका अधिकारी कौन हो सकता चारित्रवालों और सर्वचारित्र वालोमे ही पाये जाने
है; किन्तु अपुनबंधक और सम्यग् दृष्टि वालोंमें भी ___ योगविंशिकामें योगकी प्रारंभिक अवस्थाके स्थान इम योगात्मक धर्मकं बीज रहते हैं। इन योगोंका पर उच्च यौगिक स्थितिका ही प्रधानतः वर्णन है । इस प्रादुर्भाव क्षयोपशम-जन्य होता है । क्षमोपशम रूप में बतलाया गया है कि श्रावक और माधु ही योगकं कारण असंख्यात प्रकारका हो सकता है । इच्छा, अधिकारी हैं। सम्पूर्णयांग-अवस्थाएँ स्थान, शब्द, प्रवृत्ति आदि रूप योगबलसे अनुकम्पा, निर्वद, संवेग अर्थ, मालंबन और निगलंबन रूपस · पाँच भूमिका और प्रशम आदि की प्राप्ति होती है। में विभाजत की गई हैं। इनमें प्रथम दोको ‘कर्म
___ योगवि शकाकी नौवीं गाथाम आगे "चैत्यवंदन" गांग' और अन्तिम नीनको 'जानयोग' नाम दिया
वृत्तिका आधर लेकर योगका क्रियात्मक रूप इस गया है। साथ माथमें प्रत्येक भूमिकाके इच्छा, प्रवृत्ति, प्रकारसं समझाया है कि जब कोई भव्य प्राणी स्थैर्य और मिद्धि रूपस प्रभेद करते हुए आत्मिक "अरिहंन चंइयाणं करेमि का उम्सग्ग" आदिका यथा विकामकी भिन्न भिन्न कोटियोंकी भिन्नता बतलाई है।
तब यांगबलेन धिचिन इनके लक्षणका कथन भी बोधगम्य गतिमे ही किया होने के कारण वक्ताको पदोंका थथार्थ ज्ञान होजाता है । स्थानादि भूमिकाओंको इच्छादि चार प्रभेदोंसे
है । यह वास्तविक पद-ज्ञान ही अर्थ तथा बालबन गणाकर अर्थात् बीस संग्ख्यामय योग-स्थिति बतला रप यांगवालोंके लिये प्रायः माक्षात मोक्ष देनेवाला कर पुनः प्रत्येकका प्रीति, भक्ति, वचन और असंग होता है। एवं स्थान तथा वर्ण यांगवालोंके लिये नामक चागें अनुष्टानों द्वाग गुणा किया जाकर यांग
परंपरात्मक रूपम मोक्ष देनेवाला होता है। जो चारों के अम्सी भेद किये हैं तथा भली प्रकारसं समझाय
यांगोंस शून्य होता हुआ पदोंका उच्चारण करता हैं। जिनसे प्रत्येक मुमुक्षु जीव यह ममझ सके कि
रहता है, उसका वह अनुष्ठान व्यर्थ है और मृषाबाद मैं आध्यात्मिक विकासकं किस मोपान पर हूँ। रूप होनम विपरीत फल देनेवाला होता है। हरिभद्रमूरि-कृत यांविषय मंगुफित ऊपर जिन
"योगकै अभावमें भी अनुष्ठान किया ही जाना ग्रंथों का नाम निर्देश किया है। उनमम यागबिदु, याग- चाहिय, इसम तीर्थकी रक्षा होती है" ऐमा कहना दृष्टिममुच्चय और पाडशक ग्रन्थ ना संस्कृत भाषाम मूर्खता है । ऐसा हरिभद्रसूरि म्पष्ट आदेश देते हुए हैं और योगविंशिका प्राकृत भाषाम । ये प्रन्थ छप आगे कहते हैं कि "क्योंकि शास्त्रविरुद्ध विधानका करकं प्रकाशिन भी होचुके हैं। यांगशतक भी चरित्र जारी रहना ही तीर्थ-छंद है, मनमाने ढंगस चलने नायकज का बनाया हुआ कहा जाना है। वाले मनुष्यों के ममुदाय मात्रका नाम मंघ या जैन
योगशिकाम हरिभद्रमूग्नि विशुद्ध धर्म-व्यापार तीर्थ नहीं है। ऐसा ममूह ना तीर्थक स्थान पर हड़ियों
विधि उच्चारण करता है