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क्या 'तत्त्वार्थसूत्र जैनागम समन्वयं में तत्त्वार्थसत्र के बीज हैं?
[लेखक - श्राचार्य चंद्रशेखर शास्त्री, M. O. Ph, H. M. D.]
नेक वर्ष ४ किरण में पं परमानंद
जी शास्त्रीने स्वार्थमुत्रके बीजोंकी विसा
पूर्ण यो उपस्थित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान पंडित सुबलालजीके तत्वार्थ तस्त्रार्थसूत्र एवं उसके कांके विषय में मन परिवर्तन का उल्लेख किया है। साथ ही यह बतलाया है कि पं० सुपलालजी पहिले तो चाचार्य उमास्वतिको दिगम्बर या श्वेताम्बर सम्प्रदायी न मानकर जैन समाजका एक तटस्थ विद्वान मानते थे, किन्तु स्थानकवासी मुनि उपाध्याय चामारामजीके नयार किये हुए नागम-ममय" नामक प्रत्यके प्रकाशित होनेके बाद उन्होंने अपना मनपरिवर्तन करके उनको श्वेताम्बर मानना आरंभ कर दिया है ।
den बाल और पंडित परदाम दोनों ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान हैं । श्वताम्बर एवं स्थानकवासी दोनों ही समाज में मुनियोंकी अधिकता कारण विद्या एवं धर्मप्रचारका कार्य केवल मुनियोंके ही हाथमें है और इसी लिये उक्त दोनों म धर्मशास्त्र के गृहस्थ विद्वानोंकी कमी है । स्वेताम्बर सम्प्रदाय गृहस्थोंमें सबसे पहिले चाप दोनों विद्वानोंने ही धर्मग्रन्थोंका गम्भीर अध्ययन किया, आप दोनोंके अध्ययनमें दिगम्बराम्नायी यह विशेषता थी कि दिगम्बर श्रनायी विद्वान् जहां धर्मशास्त्र एवं न्यायका गंभीर अध्ययन करते हैं वहां उनके कर्ता धाचायोंके चरित्रका ऐतिहासिक अध्ययन नहीं करने किन्तु आप दोनोंने धारम्भले ही ऐतिहासिक अध्ययन पर बल दिया था। बहुत कुछ इसी जिये और कुछ श्वेताम्बर समाजमें विद्वानोंकी कमी के कारण
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आप दोनोंकी यानि दिगम्बर पंडित भी अधिक हो गई ।
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आपकी ख्याति पर मुग्ध होने वाले विद्वान इस बातको भूल गए कि आपके व्यक्तिगत मिहान क्या है। दोनों विद्वान आरंभ से ही आगम ग्रन्थोंको अकाट्य प्रमाण मानते रहे हैं। आप अन्य श्राचार्योंके ऊपर चाहे जितनी ऐति हामिक खोज करते हों किन्तु वस्तुतः श्रागमप्रन्धकी रचनाका ऐतिहासिक विश्लेषण करनेको न तो कभी तैयार थे और न हैं। ऐसी स्थितिमें जिन लोगोंने आपके ऐतिहासिक लेखों पर मुग्ध होकर आपको बिल्कुल साम्प्रदायिक रम्य विज्ञान ममका हमती समारम्भमे ही भुखमें थे। उपाध्याय आत्मारामजी स्थानकवासी सम्प्रदाय के तृतीय परमेष्टि हैं, वह आगम ग्रन्थोंके इतने भारी पनि है कि किसी विषय पर भी प्रश्न करने पर तुरंत यह बनला देते हैं कि श्रागमग्रंथों में इस वा का वर्णन श्रमुक श्रमक स्थलों पर श्राया है। किन्तु उन्होंने अपने विषय में प्रमाम्प्रदायिक एवं तटस्थ विद्वान दोनोंका कभी दावा नहीं किया ।
उन्होंने सन १६३ का अपना चातुर्मास्य ही ही किया था, इतना ही नहीं वरन वे चातुर्मास्य कई माह पूर्व देहली और सन् १३ ग प्रथांन उनको उसवार देहलीमें लगभग एक वर्ष तक ठहरनेका अवसर मिला था |
देहलीमें इतने समय तक ठहरने के आपके दोस्थे एक तो आप अपने शिष्य मुनि हेमचन्द्र एवं एक दूसरे मुनि अमरचंद (वर्तमान उपाध्याय अमरचंद्रजी महाराज) को कुछ मानक में ही पंडित मी शिक्षा दिलाना