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• अनेकान्त
वर्ष ४]
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नहीं है कोई भी श्रापको अभिभूत या पराजित नहीं कर सकता। इसीसे शरीरके शृंगाररूप श्राभूषणों, वस्त्रों तथा पुष्पमालाना श्रादिसे आपका कोई पयोजन नहीं है और न शस्त्रों तथा अस्त्रोसे ही कोई पयोजन है-शृंगारादिकी ये सब वस्तुएँ अापके लिये निरर्थक हैं, इसी से श्राप इन्हें धारण नहीं करते। वास्तव में इन्हें वे ही लोग अपनाते है जो स्वरूपसे ही मनोज्ञ होते हैं अथवा कमसे कम अपनेको यथेष्ट सुन्दर नहीं समझते और जिन्हें दसरों द्वारा हानि पहुँचने तथा पराजित होने आदिका महाभय लगा रहता है, और इसलिये वे इन श्राभूषणादिके द्वारा अपने कुरुपको छिपाने तथा अपने सौन्दर्यमें कुछ वृद्धि करनेका उपक्रम करते हैं, और इसी तरह शस्त्रास्त्रोके द्वारा दसरोपर अपना अातंक जमाने तथा दूसरोके श्राक्रमणसे अपनी रक्षा करनेका पयत्न भी किया करते हैं।
मनकी भूख
पारकरमरपारलारा
मन सुखको मदा तरसता है ! सुखिया हो वह यह बतलाय, सुख में क्या भरी सग्मता है ?
मन सुखका मदा तम्मना है !! मुझसे पूछो तो यह पूछो,
दुःखकी रजनी किस गग भरी ? कैसी टीमन, कैसी पीड़ा,
कैमी रे ! उसमे भाग भरी ? लुट चुका कभीका उजियाला, अब अंधकार ही बसता है ! सूना है तन, सूना मन है,
सूनी है यह मारी दुनिया ! मैं उस दुनियामें रहता हूँ,
जो इससे है न्यारी दुनिया !! आँसू, पाहोंका साथ लिए, चिर-दाह और नीरसता है ! बुझते दीपक की आभामें,
मेग-'जीवन-इतिहास' छिपा ! क्रन्दनमें मेरा गान छिपा,
मरनेमें, हास-विलास छिपा !! साधन-विहीन, भूखा-भूखा, रहता मन लिए विवशता है !
सुख कहते किसको ?-पता नहीं,
___ कब मैंने उसका स्वाद चखा ! जबस जीवनको अपनाया,
दुःख ही तो मेग बना मखा !! मेरे सुखके मर जाने पर, दुख वश हो-होकर हँसता है ।
मन सुखको सदा तरसता है !!
[रचयिता-श्री 'भगवत् जैन]