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अनेकान्त
[ वर्ष ४
विह्वल दशाने उसे मजबूर कर दिया है।
सही, असर तो है । दोस्तकी करुण आकृति, और है ? तो बोला- नहीं है तो वसुन्धरीको ही जरा कह दो, वह मुझे देख जाय । तबियत बड़ी ग़मगीन रही है ।'
पहुंचा ! वसुन्धरीने योग्य सन्मानके साथ बिठ लाया। सोचने लगी- 'बात क्या है, जो आज 'जेठजी' के दोस्त यहां पधारे हैं।'
मन में कलहंसके जहालत-सी उस रही थी। मुंह पर मातमपुर्सीका नजारा था । शकल देखते ही बनती थी, भीतर घबराहट जो छलांगे भर रही थी । 'कमठ क मठ' '
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'कमठका बुरा हाल है । वह बच जाय तो बच जाय। बीमारी बड़ी भयंकर लगी है-उसके पीछे !'
'कब से ?' 'हे भगवन् ! उनके पीछे यह क्या हुआ जा रहा है । आकर उनकी .............।'
'यही तो मुसीबत है ! मरुभूति होता तो मुझे भी इतनी तग्द्दुद न करनी पड़ती। क्या करूँ, समझ काम नहीं देती । उसकी हालत देखी नहीं जाती । बस, अव तबका मामला बन बैठा है।'
‘अरे ! अगर इन्हें कुछ होगया तो उनका जीवन भी खतरे से खाली न रहेगा। वे गं रोकर आंखें फोड़ लेंगे । खाना पीना छोड़ बैठेंगे । उन्हें 'भैय्या' का बड़ा दर्द है, उनकी जगमी अकुशल में वे घबरा जाते हैं 'अब १ अव क्या होगा ? संकट ! घोर संकट ।'
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रोनी सूरत बनाए कलहंस क्षण भर बैठा रहाअचल ! फिर बोला- 'अभी जरा होश आया तो बोला, क्या मरुभूति लौट आया ? उसे बुलादो ?
'ऐं, ऐसा १ उन्हें पुकारा ? क्या आखिरी वक्त
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'और हाँ, मैंने कहा कि अभी कहां लौट सकता
'वह बाग़ में ठहरा है - खुली हवा है न वहाँ, इसीसे ! वस्त्र - मण्डपमें ।'
'सो तो ठीक है ! पर, मेरा वहाँ जाना मुश्किल जा है। वे यहां हैं नहीं बग़ैर पूछे घरसे बाहर जाना स्त्रीके लिए अच्छा थोड़ा ही होता है ।'
'माना, लेकिन वह दम तोड़ रहा है । भविष्य की कौन जानता है, मर ही गया तो ? तो क्या मरुभूति यह सुनकर खुश होगा कि भैय्या के बुलाने पर भी यह उसे देखने तक न गई, और वह इन दोनों को पुकारता पुकारता चल बमा । भई, मेरी अपनी रायमें तो तुम्हारा उसे देखने जाना लाज़िम है, फिर तुम्ही जानो ।'
वसुन्धरी चुप !
बात उसे बहुत कुछ जँची । सच ही तो वे आकर बड़े नाराज होंगे, और फिर मैं किसी दूसरेको देखने तो जा नहीं रही । घरकी बात है, जेठ हैं-स जेठ, बापकी जगह ।
- और तब वह कलहंसके साथ चलदी, उसी
वक्त ।
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वस्त्र-मंडपके भीतर वसुन्धरीको पहुंचा कर कलहंस लौट आया । श्रात्म-ग्लानिमें दबा जा रहा था, वह ।
कमठ प्रतीक्षा में एक एक घड़ीको एक एक वर्ष बनाकर काट रहा था, कि नज़र आगे वसुन्धरी ।
वह भयभीत मृगी-सी आगे बढ़ी आ रही थी । कमठ उठा, हृदय में आंधी उठी और तूफान उठा,