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हरिभद्र-सूरि
[ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ विशारद ]
( अनेकान्त वर्ष ३ किरण १ से भागे )
रचनामों पर एक दृष्टि "जैन दर्शन' नामक पुस्तककी भूमिकासे और पं० हरगोविंद
दासजी लिखित 'हरिभद्र चरित्र' एवं 'जैनग्रन्थावली' श्रादि चरित्रनायक हरिभद्र-सूरिका संस्कृतभाषा और प्राकृतभाषा
" से ज्ञात होता है। पुरातत्त्वज्ञ मुनि श्री जिनविजयजीने तो दोनोपर ही समान और पूरा पूरा अधिकार था। ये ही सर्वप्रथम
__२६ ग्रन्थोंको हरिभद्र-सूरि-कृत सप्रमाण सिद्ध कर दिया है। श्राचार्य हैं, जिन्होने कि प्राकृत श्रागमग्रन्थों पर संस्कृत- जैन-माहित्यके प्रगाढ़ अध्येता हर्मन जैकोबीका खयाल टीका लिग्बी । श्रे० सम्प्रदायमें ये एक पूर्वधारी अंतिम श्रुत
है कि १४४० ग्रन्थोके रचनेकी जो बात कही जाती है, उस केवली माने जाते हैं । इनके पश्चात् पूर्वोका जान सर्वथा
में प्रकरणोंकी भी गणना ग्रन्योके रूपमें की होगी और होनी विलुप्त होगया । वेताम्बर जैनसाहित्य क्षेत्रमे इनके ही प्रभाव
ही चाहिये, क्योकि प्रकरण भी अपने आपमें स्वतंत्र विषयसे और प्रेरणासे संस्कृत-माहित्यकी श्रोर अभिरुचि बढ़ी और
मंगुफित होने के कारण ग्रन्थरूप ही हैं । इस प्रकार ५०-५० मंस्कृत जैनसाहित्य पल्लवित हुआ । संस्कृत भाषापर इनका
लोक वाले 'पंचाशक' के १६ प्रकरण, ८-८ श्लोक वाले प्रबल श्राधिपत्य था, यह बात अनेकान्तजयपताका आदि
'अष्टक' के ३२ प्रकरण, १६-१६ श्लोक वाले, 'षोडशक' ग्रन्या परसे भले प्रकार सिद्ध है। अनेकान्तजयपताका ग्रन्थ
' के १६ प्रकरण, एवं २०-२० श्लोक वाली २० 'विशिकाएँ' नत्कालीन सम्पूर्ण दार्शनिक क्षेत्रमें संस्कृत भाषामें मंगुफित
भी ग्रन्थोके समूह ही समझना चाहिये । हरिभद्र-सरिके जीवन किसी भी अन्य दार्शनिक ग्रन्यके माथ भाषा, विषय, वर्णन
की विशिष्ट घटनाके सूचक 'विरह पदसे अंकित होनेके शैली, और अर्थ-स्फुटता आदिकी दृष्टि से तुलना करने पर
कारण 'संसार दावानल' नामक ४ श्लोको वाली स्तुति भी अपना विशेष और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर मकता है।
अपने आपमें एक ग्रन्थरूप ही होगी। हरिभद्र-सूरि युगप्रधान श्राचार्य . मी लिए कहे जाते हरिभद्र-सूरि-कृत 'तत्त्वार्थ लघुवृत्ति' और 'पिडनियुक्ति' हैं कि इन्होने जैनसाहित्यको हर प्रकारसे परिपुष्ट करनेका नामक दो ग्रन्थ अपूर्ण रूपसे उपलब्ध हैं, तब यह शंका मफल और यशस्वी एवं आदर्श प्रयास किया था। विद्वत्- होना स्वाभाविक ही है कि जब अपूर्ण ग्रन्थ सुरक्षित रह भोग्य और जन-साधारण के उपयुक्त जितने ग्रन्थ इन्होंने सकते हैं, तो अन्य परिपूर्ण १४४४ की मंख्यामें कहे जाने
(जितने विषयो पर अमर लेखनीरूपतालका वाले ग्रन्थ क्यो नष्ट होगये? युगप्रधान, युगनिर्माता इस चलाई है, वह श्रापको जैनसाहित्यके चोटीके ग्रन्थकारोंमें महान कलाकारके अन्योंकी रक्षा धर्मप्रेमी जनताने अवश्य अग्रगण्य स्थान प्रदान करती है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थो की होगी। मम्भव है कि इस प्रकार प्रकरणोंकी गिनती भी की संख्या १४४४ अथवा १४४० मानी जाती एवं कही अवश्य स्वतंत्र ग्रन्योंके रूपमें की जाकर १४४४ की जोड़ जाती है। वर्तमानमें भी इनके उपलब्ध ग्रन्थोकी संख्या ७३ ठीक ठीक बिठाई जाती रही होगी। खैर, जो कुछ भी हो, गिनी जाती है, जैसा कि पं० बेचरदासजी द्वारा लिखित यह तो निर्विवाद रूपसे प्रमाणित है कि हरिभद्र-सूरिने