________________
१३६
कुलमें देवदशरूपी उदयाचलके सूर्यकी तरह भूपाल भारमल्ल उदयको प्राप्त हुए और वे रांक्याणोंराक्याण गोत्र वालों के लिये खूब दीप्तिमान् हुए हैं। भारमल्लका' भूपति (राजा)' यह विशेषण सुप्रसिद्ध है, वे वणिक संघके अधिपति हैं ।
अनेकान्त
छठे पद्य में अपनी इस रचनाके प्रसंगको व्यक्त करते हुए कविजी लिखते हैं- कि 'एक दिन मैं श्रीमाल चूड़ामणि देवपुत्र ( राजा भारमल ) के सामने बहुतसे कौतुकपूर्ण छंद पढ़ रहा था, उन्हें पढ़ते समय उनके मुखकी मुस्कराहट और दृटिकटाक्ष ( आँखों के संकेत ) परमे मुझे उनके मनका भाव कुछ मालूम पड़ गया, उनके उस मनोऽभिलाषको लक्ष्य में रखकर ही दिग्मात्ररूप से यह नामका 'पिंगल' प्रन्थ धृष्टता से प्रारम्भ किया जाता है ।'
सातवें पद्य में कविवर अपने मनोभावको व्यक्त हुए लिखते हैं
'हे भारमल्ल ! मानधनका धारक कविराजमल्ल यदि तुम्हारे यशको छंदोबद्ध करता है तो यह एक बड़े ही अर्श्व की बात है । अथवा आप तेजोमय शरीर धारक हैं, आपके पुण्यप्रतापसे पर्वत भी अपना सा बहा देते हैं ।'
करते
[ वर्ष ४
यशको अनेक छंदों में वर्णन करने में पूवृत्त हुए हैं।
यहाँ एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि तीसरे पद्य में जिन 'हर्षकीर्ति' साधुका उनकी गुरु-परम्परा सहित उल्लेख किया गया है वे नागौरी तपागच्छके आचार्य थे, ऐसा 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रंथसे जाना जाता है। मालूम होता है भारमल्ल, इसी नागौरी तपागच्छकी श्राम्नायके थे, जो कि नागौर के रहने वाले थे, इसी में उनके पूर्व उनकी आम्नायके साधुओंका उल्लेख किया गया है । कविराजमल्लने अपने दूसरे दो ग्रंथों (जम्बूम्वामिचरित्र, लाटीसंहिता) में काष्ठासंघी माथुरगच्छ के आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनकी आम्नायमें वे श्रावक जन थे जिनकी प्रार्थनापर अथवा जिनके लिये उक्त ग्रंथोंका निर्माण किया गया है । दूसरेदां प्रथ ( अध्यात्म कमल मार्तण्ड, और पंचाध्यायी) चूंकि किसी व्यक्तिविशेषकी प्रार्थना पर या उसके लिये नहीं लिखे गये हैं, इस लिये उनमें किसी आम्नायविशेषके साधुओंका वैसा कोई उल्लेग्व भी नहीं है । और इससे एक तत्त्व यह निकलता कि कविराजमल जिसके लिये जिस प्रथका निर्माण करते थे उसमें उसकी आम्नायके साधुओं का भी उल्लेख कर देते थे, अतः उनके ऐसे उल्लेखों पर से यह न समझ लेना चाहिये कि वे स्वयं भी उसी आम्नायके थे । बहुत संभव है कि उन्हें किसी श्राम्नायविशेषका पक्षपात न हो, उनका हृदय उदार हो और वे साम्पदायिकता के पङ्कसे बहुत कुछ ऊँचे उठे हुए हों ।
इस पिछले पद्यसे यह साफ ध्वनित होता है कि कविराजमल्ल उस समय एक अच्छी ख्याति एवं प्रतिष्ठाप्राप्त विद्वान थे किमी क्षुद्र स्वार्थके वश होकर कोई कवि-कार्य करना उनकी प्रकृतिमें दाखिल नहीं था, वे सचमुच राजा भारमहके व्यक्तित्व से - उनकी सम्पत्तियों एवं सौजन्य से - प्रभावित हुए हैं, और इसी से छंदःशास्त्र के निर्माणके साथ साथ उनके * वक्खा थिए गोत विक्खात गक्याणि एतस्स || १६८ ||
कविराजमलने दूसरे प्रथोंकी तरह इस प्रथमें भी अपना कोई खास परिचय नहीं दिया- कहीं कहीं तो 'मल्लभ' 'कविमलक कहै' जैसे वाक्योंद्वारा