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प्रभाचंद्रका समय
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लेने के कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचंद्रकृत नहीं प्रशसिवाक्य नहीं है, किन्हींमे 'श्री पवनन्दि' सोक मानना चाहनं । मुख्तारसा० ने एक हेतु यह भी दिया नही है तथा कुछ प्रतियोम सभी लोक और प्रशस्ति है। कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियोंमें यह वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमे 'जयसिंह अंतिमवाक्य नहीं पाया जाता। और इसके लिए देवराज्ये' प्रशस्ति वाक्य नहीं है । श्रीमान मुख्तारसा. माण्डारकर इंस्टीट्यटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला पायः इमीम उक्त पस्तिवाक्योंको प्रमाचन्द्रकृत नहीं दिया है । मैंने भी प्रमेयकमलमार्गण्डका पुनः सम्पादन मानने । करते ममय जैनसिद्धान्तभवन आगकी प्रतिकं पाठा
इसके विषयम मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक म्तर लिए है। इसमे भी उक्त 'भोजदेवगज्ये' वाला
॥ प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचंद्रके सम्पादन अन्यकी प्रशस्ति अन्यप्रन्थमं लगानका प्रयत्न कम मे जिन श्रा०, ब, श्र० और भां० प्रतियोंका उपयोग करते हैं । लेखक आखिर नकल करने वाले लेखक किया है, उनमे प्रा० और ब० प्रनिमे 'श्री जयसिंह- ही तो हैं, उनमे इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना देवराज्य' वाला प्रशस्ति लेग्य नहीं है । हाँ, भां० ओर है कि वे 'श्री भोजदेवगज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्ति श्र० प्रतियाँ, जो तादपत्र पर लिखी हैं, उनमे 'श्री को स्वकपोलकल्पित करके उसमे जोड़ दें। जिन जयसिहदेवराज्य' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमे भां०
पतियोमे उक्त पस्ति नहीं है तो समझना चाहिए प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिम्बी हुई है। इस
कि लेखकोके पूमादसे उनमे यह प्रशस्ति लिखी ही तरह प्रमेयकमलमण्डिकी किन्हीं प्रतियोमे उक्त
नहीं गई । जब अन्य अनेक पमाणोंस पभाचन्द्रका १ रत्नकरण्ड प्रस्तावना पृ०६०।
समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्य २ देखा,इनका परिचय न्यायकु०प्र०भागके मंपादकीयम। काल तक पहुंचता है तब इन पस्तिवाक्योका टिप्प ३ पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके श्राधारसे
णकारकृत या किसी पीछे होने वाले व्यक्तिकी करतूत सूचित करते हैं कि- "भाण्डारकर इंस्टीच्य टकी नं०८३६ ( सन् १८७५-७६) की प्रतिमे प्रशस्तिका 'श्री पद्मनंदि'
कहकर नही टाला जा मकता । मंग यह विश्वास है वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये वाक्य नहीं। वहीं की कि 'श्रीभोजदेवराज्य' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' नं० ६३८ ( सन् १८७५-७६ ) वाली प्रतिमे 'श्री पद्मनंदि' प्रशस्तियां मर्वपथम पमेयकमलमार्तण्ड और न्यायश्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है। पहिली प्रति कुमदचंद्रकं रचयिता पभाचंद्रन ही बनाई हैं। और संवत् १४८६ नथा दूसरी संवत् १६१५ की लिखी हुई है।" --
वीरवाणी विलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्व- है" सोलापरकी प्रतिमें "श्री भोजदेवराज्य" प्रशस्ति नहीं नाथशास्त्री अपने यहाँ की नाड़पत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको है। दिल्लीकी श्राधुनिक प्रतिमें भी उक्त वाक्य नहीं है। देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रित अनेक प्रतियोमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जाने वाले पुस्तकानमार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये "सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इंदौरकी श्रीमद्धारानिवासिना' आदि वाक्य हैं। प्रमेयकमलमार्चण्ड तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी की प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष व्याख्या भी है। खुरईकी प्रतिमे 'भोजदेवराज्य प्रशस्ति नहीं पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोमें शकसंवत् नहीं है, पर चारों प्रशस्ति-श्लोक हैं।
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