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किरण २]
प्रभाचन्द्रका समय
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९५० से १०२० तक निर्धारित किया है। इस निर्धा- और प्रभाचंद्र' की तुलना करते समय व्योमशिवका रित समयकी शताब्दियों तो ठीक हैं पर दशकोंमें समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित अंतर है । तथा जिन प्राधारोंसे यह समय निश्चित कर पाया हूँ। इसलिए मात्र व्योमशिवके प्रभावके किया गया है वे भी अभ्रांत नहीं हैं । पं० जीने कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० के बाद नहीं प्रभाचंद्रके ग्रंथोंमें व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीका जा सकता। महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो का प्रभाव देखकर प्रभाचंद्रकी पूर्वावधि ९५० ई० यह है कि-पुष्पदन्तके महापुराण पर श्रीचंद
और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचंद्रकृत टिप्पणको आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचंद्र आचार्यका वि० सं० १०८० (ई० १०२३ ) में समाप्त मानकर भी। बलात्कारगणके श्रीचंद्रका टिप्पण भाजदेवके उत्तरावधि १०२० ई० निश्चित की है। मैं व्योमशिव राज्यमें बनाया गया है । इसकी प्रशस्ति निम्न श्रादिपुराणकार-द्वारा स्मृत हो सकते थे। (२) 'जयन्त और लिखित हैप्रभाचंद्र' की तुलना करते समय मैं जयंतका समय ई. ॥ श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक ७५० से ४० तक सिद्ध कर आया हूँ। अत: समकालीन- सहस्र महापगणविषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तात् वद्ध जयंतसे प्रभावित होकर भी प्रभाचंद्र श्रादिपुराणम परिमाय मलटिप्पणाचालोक्य कृ-मिदं समुचय उल्लेख्य हो सकते हैं। (३) गुणभद्रके श्रात्मानुशासनसे 'अन्धादयं महानन्धः' श्लोक उद्धत किया जाना अवश्य सेनमुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं ऐसी बात है जो प्रभाचंद्रका श्रादिपराणमें उल्लेख होनेमें अविकलवृत्त हो गए थे। अत: लोकसेनकी प्रारम्भिक बाधक हो सकती है। क्योकि आत्मानुशामनके "जिनसेना- अवस्था में, उत्तरपुराणकी रचनाके पहिलेही श्रात्मानुशासनका चार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कतिरात्मा- रचा जाना अधिक संभव है। पं० नाथूरामजी प्रेमीने विद्रल. नुशासनम् ॥” इस अन्तिमश्लोकसे ध्वनित होता है कि यह माला (पृ.७५) में यही संभावना की है। श्रात्मानुशासन ग्रन्थ जिनसेनस्वामीकी मृत्युके बाद बनाया गया है। क्योंकि गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है। और गुणवही ममय जिनसेनके पादोंके स्मरणके लिए ठीक ऊँचता है। भद्रने इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेनकी मृत्युके बाद अतः श्रात्मानुशासनका रचनाकाल मन् ८५० के करीब बनाया होगा। परन्तु श्रात्मानुशासनकी आंतरिक जाँच मालूम होता है। श्रात्मानुशासन पर प्रभाचंद्रकी एक टीका करनेसे हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि इसमें अन्य उपलब्ध है। उसमें प्रथम श्लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार कवियोंके सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है। है- "बृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धः सम्बोधन- उदाहरणर्थ-श्रात्मानुशासनका ३२ वां पद्य 'नेता यस्य व्याजेन सर्वसत्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितकामो गणभद्र- वृहस्पतिः' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८ श्लोक है. देव:..." अर्थात्-गुणभद्र स्वामीने विषयोंकी अोर चंचल श्रात्मानुशासनका ६७ वा पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्दं' बैराग्यशतक चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (१) लोकसेनको समझानेके का ५० वां श्लोक है। ऐसी स्थितिमें 'श्रन्धादयं महानन्धः बहाने श्रात्मानुशासन ग्रंथ बनाया है। ये लोकसेन गुणभद्रके सुभाषित पद्य भी गुणभद्रका स्वरचित ही है यह निश्चयप्रियशिष्य थे। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें इन्हीं लोकसेनको पूर्वक नहीं कह सकते। तथापि किमी अन्य प्रबल प्रमाणके स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि, अवि- अभावमें अभी इस विषयमें अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। कलवृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनुमान देखो, न्यायमुकुदचंद्र द्वि० भागकी प्रस्तावना पृ० तथा तो सहज ही किया जा सकता है कि श्रात्मानुशासन उत्तर- अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ में 'प्रभाचंद्रके समयकी सामग्री पुराणके बाद तो नहीं बनाया गया; क्योंकि उस समय लोक- लेख ।