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अनेकान्त
साहित्यका ज्ञान और न किताबोंकी पहिचान । उसे क्या मालूम कि एक जवान पुरुष और एक बच्चे में क्या फ़रक्त है, उसे तो अपनी आशा और इच्छा पूर्ण करनेसे मतलब | वह महाजन वंश और जैन धर्म में पली हुई नारी थी, लेकिन साथ ही अंधविश्वास ने उस अज्ञान बालाके मस्तिष्क में पूरी तौरसे स्थान जमा लिया था । हम कहते हैं आशा अमर होती है। लीलाकी भी यही गति थी । उसे भी आशा थी कि उसके पतिदेव एक दिन उसके दुःखका समझेंगे और उसके अंतर की भूम्बको दूर करेंगे ।
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* परीक्षा समाप्त होगई, रमेशके इम्तिहान का नतीजा आया । वह अपनी क्लास में सर्वप्रथम और फर्स्ट डिवीजनमें पास हुआ था, जिसके लिए हेडमास्टर ने बहुत खुशी प्रकट की और उसे स्कूल बोर्ड से मिलने वाला इनाम भी जाहिर कर दिया। उन्होंने यह भी आशा प्रकट की कि अगले साल होने वाले बोर्डक मिडिल इम्तिहान में वह गाँव और स्कूलको काफी
यश प्राप्त कराएगा ।
अब रमेशकी गर्मी की छुट्टियाँ हैं, कोई विशेष काम नहीं । दिनको यह मित्रोंके साथ खेलने, नहाने तैरने, वगैरह के लिये जाता है। अभी उसे अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं। शामको जल्दीसं सो जाता है । न इधर उधर के विचार, न किसी बात की कोई चिंता ।
[ वर्ष ४
आप मुझ गरीबकी इच्छाओं को पूर्ण क्यों नहीं करते ? क्या आपको मालूम नही मैं कितनी दुःखी हूँ ? मैं आपसे कितना कहूँ ।”
वह बोल उठा "तुम्हारे घर में खाने खरचन
रमेश कुछ नहीं समझा। माफिक भी कोई मनुष्य होगा; को बहुत, काम करनेको नौकर-चाकर, फिर भी तुम्हें क्या दुःख है । फिजूल मेरे पीछे क्यों पड़ती हो ।
वह रमेशके गले लिपट गई, और गद्गद् कण्ठसे कहने लगी, "तुम्हारा और मेरा सम्मिलन और पाणिग्रहण होने का उद्देश्य क्या आप यही समझत हैं ! लेकिन, मेरी आंतरिक भूख, मेगें सन्तानकी अभिलाषाको कौन पूरी करेगा, पतिदेव ?”
परन्तु इधर लीलाको उसका दुःख उसे सता रहा था । आज उसने रमेशसे कुछ बोलने की ठानी। रात को ज्योंही वह कमरे श्राया उसने रमेशको पलङ्गपर बिठाकर कहा "गरीबपरवर, अब तो आपकी परीक्षा समाप्त होचुकी है, सुबह जल्दी उटना नहीं, अब
रमेश के सिरमें बिजली-मी दौड़ गई ! वह सन्न होगया ! वह अब कुछ कुछ समझने लगा कि उसकी पत्नी उससे क्या चाहती है । उसका मन अब गृहम्थावस्थाको समझने लग गया था। अब वह स्त्री-पुरुषसम्बन्धी स्वाभाविक प्रेरणा (Sexual instinct) से बिल्कुल अनभिज्ञ न था । लेकिन साथ ही वह इस विषयपर गहरा विचार करने लायक भी न था । उसने अपनी दुःखिता पत्नी पर दया करना चाहा, और उस दयाका रूप क्या था उसे पाठक स्वयं विचारलें ।
रमेश खुद भी अब इसमें अपना दिलबहलाव समझने लगा ।
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पंद्रह दिन बाद
रमेश, दिनके दो बजे अपने कमरे में बैठा हुआ था । उसका एक मित्र उससे मिलने आया था, जो उसके सामने कुर्सीपर बैठा हुआ कुछ बोल रहा था । रमेशकं चेहरेपर अब वह सौंदर्य नहीं था, वह तेज